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________________ धान की रोपाई कब होती है, कब कटनी होती है, कब रब्बी की फसल लगायी जाती है, कब दलहन और तेलहन रोपे काटे जाते हैं। बारहों नक्षत्रों और महीनों के नाम कंठस्थ थे उन्हें उन्हें आश्चर्य होता कि यह कैसा जीवन है जहाँ लोग उन चीजों के बारे में न जानते, न जानने की उत्सुकता रखते कि जिन चीजों का संबंध उनके प्राणों से है. उन्हें लगाने वाली जगह कहाँ है, लोग कहाँ है? प्रताप बाबू को बड़ा दुखद और हास्यास्पद लगता कि पेड़ों को किताबों में पढ़ाया जाता है, टी०वी० में दिखाया जाता है, कापियों में आंका जाता है। खेलों को खेला कम, टी०वी० में देखा अधिक जाता है। दो महीने हुए थे उन्हें आये हुए इंजीनियर बेटे ने बहुत आग्रह कर बुलाया था प्रताप बाबू स्वयं तो एस० डी०ओ० के पद से छल में रिटायर हुए थे। बाकी जीवन के लिए कोई संतोषप्रद शैली ढूँढ़ने की दिशा में सोच रहे थे कलकत्ता आते हुए सोचा था कि कुछ लंबी अवधि तक रहेंगे, बच्चों को पढ़ाने में मदद करेंगे। असल में सरकारी नौकरी की वजह से अपने बच्चों की पढ़ाई में खुद अपना योगदान नहीं दे पाये थे वे इसकी कसक उनके भीतर भी थी और बच्चों के मन में भी पिता के लिए एक शिकायत थी। बुढ़ापे में अपनी इस सोच और योजना के पीछे इंगेजमेंट की तलाश भी थी और शायद इस कसक से छुटकारे की भी । पर कलकत्ता आकर तो कहीं इसका द्वार दरवाजा दिखायी न दिया उन्हें । वे आए। काफी खातिर हुई। बेटे ने ड्राइवर और बच्चों के संग चिड़ियाखाना, म्यूजियम, विक्टोरिया मेमोरियल, प्लेनेटेरियम, बेलूरमठ और दक्षिणेश्वर तमाम दर्शनीय स्थलों पर भेजा उन्हें घुमाया कहना चाहिए। दो-चार दिनों तक उनके आने की गहमागहमी रही घर में । फिर घर के नियमित रूटीन में वे भी एक रूटीन हो गए। - ड्राइवर सुबह बच्चों को लेकर स्कूल जाता था । बहू बच्चों को झटपट तैयार कर देती थी। बेटा बेड टी लेकर भी साढ़े आठ बजे तक सोया रहता था या बिस्तर पर पड़े-पड़े टी०वी० [0 न्यूज और कीप-फिट देखता रहता था। टी०वी० से न्यूज सुनने की बात प्रताप बाबू की समझ में आती थी पर कसरत को टी०वी० में देखने की बात बिल्कुल समझ में नहीं आती थी और तो और कसरत को T कीप-फीट क्यों कहेंगे ? योग को योगा क्यों कहेंगे? देसी नामों से क्या इनकी एनर्जी कम हो जाती है? ऐसी आधुनिकता पर कई सवाल थे उनके पास पर जवाब हँसकर टाला जाता था । दोपहर में बच्चे आते - खा-पीकर थोड़ा आराम करते, फिर शाम जुट जाते पढ़ाई में। प्रताप बाबू ने जैसा कि सोचा था, चाहा कि बहू का यह दायित्व अपने हाथों में ले लें। यही सोच उन्होंने कल बच्चों को बुलाया अपने पास शिक्षा एक यशस्वी दशक Jain Education International , पर वे बहू के व्यवहार से हतप्रभ हो गए। प्रताप बाबू हिन्दी और अंग्रेजी में गोल्डमेडलिस्ट थे, बहू को पता था यह लड़की बहुत पढ़ीलिखी तो न थी पर अंग्रेजी माध्यम से इंटरमीडियट कर लिया था। उनके मित्र की लड़की थी । प्रताप बाबू के लड़के का उससे प्रेम विवाह था, जिसमें दोनों परिवारों को एक दूसरे का संबंध सहर्ष स्वीकार था। बच्चों को बुलाने पर छूटते ही उसने कहा बड़ा टफ है इन लोगों का कोर्स, आप से होगा नहीं, स्वर भीमा था पर दृढ़। इधर बच्चों का मूड बन गया, अपने इस नए टीचर से पढ़ने का । इन कुछ दिनों में दादाजी उनके लिए एक मजेदार जीव सिद्ध हो चुके थे एक एडवेंचर, याकि नए-नए रहस्यों के खदान। इससे भी बड़ी बात थी कि वहाँ किलकने फुदकने की छूट भी अधिक थी टीचर के रूप में उनकी परीक्षा भी करनी थी। वे दौड़े चले गए दादाजी के पास । प्रताप बाबू का बहू से आहत मन बच्चों के उत्साह में भुला गया। उन्होंने बच्चों का भारी बस्ता उल्टा पल्टा। इतनी किताब - कापियाँ तो उन्होंने मैट्रिक तक में भी न देखी थी। बड़ा पाँच साल का था, के ० जी० में पढ़ रहा था। छोटा ढाई का, दो-चार दिनों से नर्सरी जा रहा था । इसलिए प्रायः रोज ही स्कूल जाते समय वह एक तमाशा खड़ा कर देता था नहीं स्कूल नहीं जाएगा। तब तरह-तरह से मिठाइयाँ, चाकलेट तथा अलग-अलग लोभ देकर उसे भेजा जाता था। प्रताप बाबू के वश में होता तो वे उसे स्कूल जाने से बना लेते। बाई साल के बच्चे को स्कूल भेजकर क्या पढ़ाना है भला? उनकी सोच में तो माँ ही अभी पाठशाला है उसकी अभी उसे स्कूल भेजने का मतलब तो सिर्फ उससे निजात पाना है। बस । वात्सल्य के ऐसे आधुनिकीकरण पर वे ऐसा ही सोचते हैं। पर ऐसा उनके सोचने से क्या हो सकता था। अपनी हैसियत के विलोपन का अहसास पूरी तरह से था उन्हें उन्हें तो बहुत कुछ अच्छा नहीं लगता था और तो और इन पोतों का नाम तक लेने में परेशानी होती थी उन्हें । जैकी और डॉन। ये भी कोई नाम है भला ? नाम एक महत्वपूर्ण संज्ञा है। उनकी नजर में। वह तत्काल व्यक्तित्व का परिचायक हो न हो पर उसका अपने आप में एक सांस्कृतिक, ऐतिहासिक या सामाजिक अर्थ गांभीर्य तो प्रकट होना ही चाहिए। वह भी न सही उसके पीछे कम से कम माता-पिता की महत्वाकांक्षा या कल्पना तो शांती हो कहीं। उन्होंने अपने इन दोनों पोतों का नाम रक्खा था, यशवन्त प्रताप और दिग्विजय प्रताप स्कूल में बच्चों के ये ही नाम नामांकित थे पर पुकार में ये बदल कर जैकी और डॉन हो गये थे। इस तरह अच्छा न लगना तो कितनी कितनी बार कितनी कितनी घटनाओं में घटता चला जा रहा था घर में । आप को अच्छा नहीं लगता तो न लगे, घर की हवा प्रायः यह कह कर चल देती उन्हें मानों वह बहुत दिनों से उन्हें बिना पूछे बहती विद्वत खण्ड ९१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211171
Book TitleDisha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManjurani Sinh
PublisherZ_Jain_Vidyalay_Granth_012030.pdf
Publication Year2002
Total Pages4
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ritual
File Size567 KB
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