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स्व: मोहनलाल बांठिया स्मृति ग्रन्थ
प्रज्ञापनासूत्र के टीकाकार मलयगिरी ने कहा है
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तावदेव तपः कार्य, दुर्थ्यांनं यत्र नो भवेत । येन योगा न हीयन्ते, क्षीयन्ते नेन्द्रियाणि च ।।
वैसा ही तप करना चाहिए जिससे मन में दुर्ध्यान न बढ़े, योगों की हानि न हो और इन्द्रियां क्षीण न हों ।
मरणसमाधि में भी इसी आशय का एक श्लोक कहा है -
सोणाम अणसणो तवो, जेण मणो ५ मंगलं न चिंतेहि । जेण न इंदियहाणी, जेण य जोगा न हायंति ।।
वही अनशन तप श्रेष्ट है जिससे मन अमंगल (अशुभ) चिंतन न करे, इन्द्रियों की हानि न हो और योगों की आवश्यक कार्य में क्षति न हो । फलित की भाषा यही है कि तप करना चाहिए परन्तु उसमें न तो अनुकरण होना चाहिए और न अपनी शक्ति का अतिक्रमण ही होना चाहिए। अपनी शक्ति के अनुसार तप की साधना अधिक से अधिक करनी चाहिए । विवेक के बिना किया गया तप ताप, संताप और परिताप बन जाता है जिससे आत्मिक शान्ति और समाधि नहीं मिलती। जो व्यक्ति अपनी शक्ति को बिना तोले या उसकी उपेक्षा करके तप करते हैं वे तप की प्रतिष्ठा को स्थापित न कर उसकी अप्रतिष्ठा बढ़ाता है, विवेकपूर्वक तप करने वाला जैन शासन की प्रतिष्ठा बढ़ाता है, स्वयं भी लाभान्वित होता है और तप की भी गरिमा बढ़ाता है ।
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भगवान ने कहा - ' णो पूयणं तवसा अवहेज्जा ।' पूजा-प्रतिष्ठा के लिए तप मत करो। पूजा और प्रतिष्ठा तो स्वयं मिलने वाली है, वह कहां जाएगी ? धान्य के साथ भुसा भी होता है धान्य के उद्देश्य से खेती करने वाला धान्य के साथ भूसा भी पाता है । भूसे के लिए खेती करने वाला वुद्धिमान नहीं कहलाता। भगवान महावीर ने उस तप का निषेध किया, जो इस लोक की कामना (ऋद्धि-सिद्धि के लिए), परलोक की कामना (स्वर्ग, इंद्रपद आदि की प्राप्ति के लिए) या यश, कीर्ति और प्रतिष्ठा के लिए तप करते थे । उन्होंने एक ही उद्देश्य से तप का विधान किया, वह है निर्जरा, कर्म बंधन से मुक्ति, आत्म शुद्धि ।
प्रवृत्ति के साथ परिणाम जुड़ा रहता है। कोई भी प्रवृत्ति परिणाम शून्य नहीं होती । भविष्यद्रष्टा होते हैं वे परिणाम को देखकर प्रवृत्ति करते हैं । परिणाम के आधार
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