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जैन साधना में प्रणव का स्थान
४९९ के आद्य अक्षरों को लेकर व्याकरण के नियमों के अनुसार उनसे ओम् रूप में घटित होते हैं उसकी चर्चा में न जाकर मैं केवल यह बताना शब्द को निष्पन्न बताया है। 'ओम्' शब्द पञ्च-परमेष्ठियों के प्रथम अक्षरों चाहता हूँ कि साधना के क्षेत्र में जो ध्वनिरूप इन शब्दों का प्रयोग से कैसे निष्पन्न होता है? इस सम्बन्ध में वे बताते हैं कि पञ्च-परमेष्ठियों हुआ, वह एक विशिष्ट स्थान रखता है। जैन परम्परा में ॐ के महत्त्व के प्रथम अक्षर अ, अ, आ, उ और म् है। इनमें पहले 'समानः सवर्णे और उसके साधनागत प्रयोग में जो अभिवृद्धि हुई, उसका मूल कारण दीर्धी भवति' इस सूत्र से 'अ अ मिलकर दीर्घ आ बनाकर 'परश्च । तन्त्र परम्परा का जैन साधना पर प्रभाव ही है। वस्तुत: जैसे-जैसे जैन लोपम्' इससे अक्षर आ का लोप करके अ, अ, आ इन तीनों के परम्परा तन्त्र को आत्मसात करती गई, उसके साधना विधान में इन स्थान में एक आ सिद्ध किया। फिर 'उवणे ओ' इस सूत्र से आ उ बीज मन्त्रों का महत्त्व बढ़ता गया। यह माना जाने लगा कि नमस्कार के स्थान में ओ बनाया। फिर मुनि के म् से सन्धि करने से 'ओम्', महामन्त्र के प्रत्येक पद के प्रारम्भ में प्रणव का उच्चारण करना चाहिए। यह शब्द सिद्ध होता है।
मल्लिषेणसूरि भैरवपद्मावतीकल्प में लिखते हैं - जैन परम्परा में हिन्दू परम्परा के अनुरूप ही ॐ शब्द को पञ्चनमस्कारपदैः प्रत्येकं प्रणवपूर्वहोमान्त्यैः । सर्वविद्याओं का आद्यबीज, सकल आगमों का उपनिषद्भूत तत्त्व अर्थात् पूर्वोक्तपञ्चशून्यैः परमेष्ठिपदाग्रविन्यस्तैः ।। सारतत्त्व, सभी विघ्नों का विनाशक, सभी संकल्पों की पूर्ति में कल्पद्रुम इसी बात को श्वेताम्बर चक्रचूड़ामणि श्री यशोभद्रोपध्याय के शिष्य के समान परम मङ्गलकारी कहा गया है। जैनों की दिगम्बर परम्परा श्रीचन्द्रसूरि विरचित अद्भुतपद्मावतीकल्प में भी कहा गया हैमें ॐ को जिनवाणी का प्रतीक माना गया है। पुन: उसे जिनवाणी होमान्ताः प्रणवनमोमुख्या: पञ्चपरमेष्ठिमध्यगताः । का पर्याय भी बताया, क्योंकि उनके अनुसार अर्हन्त् भगवान् की वाणी हाँ ह्रीं हूँ ह्रीं ह्र: शरबीजा: प्रान्त्यादिदेशपदाः ।।५।। प्रयत्नजन्य न होने के कारण मात्र अनक्षर ध्वनि रूप होती है। ओंकार यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि जैन परम्परा में 'प्रणव' का प्रयोग शब्द मात्र ध्वनि रूप है और इसीलिए उसमें सर्वभाषारूप में परिणमन आध्यात्मिक साधना की अपेक्षा तान्त्रिक साधना में ही अधिक देखा करने का सामर्थ्य है। दिगम्बर जैनों का यह विश्वास है कि भगवान् जाता है। भैरवपद्मावतीकल्प के वशीकरणयन्त्राधिकार के निम्न दो श्लोक की वाणी दिव्य-ध्वनि रूप होती है। जिसे प्रत्येक प्राणी अपनी-अपनी इसका स्पष्ट प्रमाण है। भाषा में समझ जाता है। जिस प्रकार ब्राह्मण परम्परा में ॐ शब्द भ्रमयुगलं केशि भ्रम माते भ्रम विभ्रमं च मुह्यपदम् । को तीनों लोक का वाची माना जाता है, उसी प्रकार जैन परम्परा में मोहय पूर्णैः स्वाहा मन्त्रोऽयं प्रणवपूर्वगतः ।। भी ॐ शब्द को त्रिलोक का वाची माना गया है। इसमें 'अ' अक्षर
अथवा अधोलोक का, 'उ' उर्ध्वलोक का और 'म' मध्यलोक का वाची है। प्रणवं विच्चे मोहे स्वाहान्तं सप्तलक्षणजाप्येन। इस प्रकार ॐ को लोक का पर्यायवाची भी मान लिया गया। ज्ञातव्य एकाकिनी निशायां सिद्धयाति सा याक्षिणी रण्डा।। है कि ॐ शब्द की जो-जो व्याख्याएँ जैन परम्परा में की गई, उनकी इसी प्रकार भैरवपद्यावतीकल्प के निम्न श्लोक भी द्रष्टव्य है - समानान्तर व्याख्याएँ वैदिक परम्परा में भी मिल रही हैं। अत: नि:संकोच प्रणवाद्रिपञ्चशून्यैरभिमन्त्र्ण कुमारिकाकुचस्थाने। रूप से यह स्वीकार करना होगा कि ओम् शब्द की ये सभी व्याख्याएँ अशितुं तयोश्च दधाद् घृतेण सम्मिश्रितान् पूपान्।। ब्राह्मण परम्परा से प्रभावित हैं और ब्राह्मण परम्परा के कर्मकाण्ड को प्रणवः पिङ्गलयुगलं पण्णत्तिद्वितयं महाविधेयम्। स्वीकार करने के साथ ही जैन परम्परा में गृहीत हो गयी हैं। प्राचीनकाल टान्तद्वयं च होमो दर्पणमन्त्रो जिनोद्दिष्टः।। में जैन परम्परा में साधना का मूल मन्त्र ‘अर्हम्' ही होता था, किन्तु ये उल्लेख इस तथ्य के प्रमाण है कि वैदिक परम्परा के कर्मकाण्ड जब से जैन परम्परा में हिन्दू परम्परा के कर्मकाण्ड प्रविष्ट हुए 'ॐ' और तन्त्र साधना को जब जैन आचार्यों ने किंचित् परिष्कार एवं परिवर्तन शब्द जैन साधना का अभिन्न अङ्ग बन गया। लगभग छठी-सातवीं के साथ अपनी परम्परा में गृहीत किया तो अनेक वैदिक देवी-देवताओं शती के पश्चात् जैन परम्परा में ध्यान, जप और मन्त्र साधना में 'ॐ' के साथ-साथ 'प्रणव' का ग्रहण भी मन्त्र के रूप में, जैन परम्परा में शब्द को स्थान प्राप्त हो गया। जैनों में जप और ध्यान साधना में हुआ। मात्र यही नहीं, इन मन्त्रों को 'जिनोद्दिष्टः' अर्थात् जिनप्रणीत 'ॐ' और 'अर्हम्' का सम्मिलित रूप 'ॐ अर्हम्' प्रयुक्त होने लगा। भी कहा गया। इन्हें जिनप्रणीत कहने का तात्पर्य यही था कि इन इस सम्बन्ध में निम्न मन्त्र द्रष्टव्य है
पर सामान्य जैन की पूर्ण आस्था बनी रहे, क्योंकि मन्त्रों की अपेक्षा ___ॐ ह्रीं अर्ह असिआउसाय नमः
उनके प्रति साधक की आस्था ही वस्तुतः फलवती होती है। ॐ ह्रीं श्रीं अहँ पार्श्वनाथाय नमः
जैन परम्परा में तांत्रिक साधना के साथ-साथ आध्यात्मिक साधना यह सत्य है कि ओम् और अहम् दोनों ही शब्द मूलत: नाद के क्षेत्र में और विशेष रूप से ध्यान साधना के क्षेत्र में भी ॐ (प्रणव) रूप हैं और उनकी विशिष्ट ध्वनि से जो कम्पन उत्पन्न होते हैं वे व्यक्ति को स्थान प्राप्त हुआ है। और उसके परिवेश को प्रभावित करते हैं। अत: इसमें कोई सन्देह जहाँ तक मेरी जानकारी है सर्वप्रथम आचार्य शुभचन्द्र (१०वीं का प्रश्न नहीं है कि इसकी जप साधना से व्यक्ति के व्यक्तित्व और शती) ने ज्ञाणार्णव में पदस्थ ध्यान की चर्चा करते हुए ॐ को जैन उसके परिवेश में विशिष्ट परिवर्तन न हो। ये परिवर्तन कैसे और किस परम्परा के ध्यान के क्षेत्र में भी स्थान दिया। आचार्य शुभचन्द्र
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