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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ जैन साधना एवं आचार
को रोकने के समान अति कठिन है। ११ चंचल मन में विकल्प उठते रहते हैं इन्ही विकल्पों के कारण चैतसिक आकुलता या अशान्ति का जन्म होता है। यह आकुलता ही चेतना में उद्विग्नता या तनाव की उपस्थिति की सूचक है, चित्त की यह उद्विग्न या तनावपूर्ण स्थिति ही असमाधि या दुःख है। इसी चैतसिक पीड़ा या दुःख से विमुक्ति पाना समग्र आध्यात्मिक साधना-पद्धतियों का मूलभूत लक्ष्य है। इसे ही निर्वाण या मुक्ति कहा गया है।
मनुष्य में दुःख - विमुक्ति की भावना सदैव ही रही है। यह स्वाभाविक है. आरोपित नहीं है क्योंकि कोई भी व्यक्ति तनाव या उद्विग्नता की स्थिति में जीना नहीं चाहता है। उद्विग्नता चेतना की विभावदशा है। विभावदशा से स्वभाव में लौटना ही साधना है। पूर्व या पश्चिम की सभी अध्यात्मप्रधान साधना-विधियों का लक्ष्य यही रहा है कि चित को आकुलता, उद्विग्नता या तनावों से मुक्त करके, उसे निराकुल, अनुद्विग्नता या तनावों से मुक्त करके, उसे निराकुल, अनुद्विग्न चित्तदशा या समाधिभाव में स्थित किया जाये इसलिये साधना विधियों का लक्ष्य निर्विकार और निर्विकल्प समतायुक्त चित्त की उपलब्धि ही है इसे ही समाधि सामायिक (प्राकृत-समाहि) कहा गया है ध्यान इसी समाधि या निर्विकल्प चित्त की उपलब्धि का अभ्यास है। यही कारण है कि वे सभी साधना-पद्धतियाँ जो व्यक्ति को अनुद्विग्न, निराकुल, निर्विकार और निर्विकल्प या दूसरे शब्दों में समत्वयुक्त बनाना चाहती हैं, ध्यान को अपनी साधना में अवश्य स्थान देती हैं।
ध्यान का स्वरूप एवं प्रक्रिया
जैनाचार्यों ने ध्यान को 'चित्तनिरोध' कहा है। १२ चित्त का निरोध हो जाना ध्यान है। दूसरे शब्दों में यह मन की चंचलता को समाप्त करने का अभ्यास है। जब ध्यान सिद्ध हो जाता है तो चित्त की चंचलता स्वतः ही समाप्त हो जाती है योगदर्शन में 'योग' को परिभाषित करते हुए भी कहा गया है कि चित्तवृत्ति का निरोध ध्यान से ही सम्भव है। अतः ध्यान को साधना का आवश्यक अंग माना गया है।
गीता में मन की चंचलता के निरोध को वायु को रोकने के समान अति कठिन माना गया है। १३ उसमें उसके निरोध के दो उपाय बताये गये हैं- १. अभ्यास, २. वैराग्य उत्तराध्ययन में मन रूपी दुष्ट अश्व को निगृहीत करने के लिए श्रुत रूपी रस्सियों का प्रयोग आवश्यक " बताया गया है । १४ चंचल चित्त की संकल्प - विकल्पात्मक तरंगें या वासनाजन्य आवेग सहज ही समाप्त नहीं हो जाते हैं। पहले उनकी भागदौड़ को समाप्त करना होता है किन्तु यह वासनोन्मुख सक्रिय मन था विक्षोभित चित्त निरोध के संकल्प मात्र से नियन्त्रित नहीं हो पाता है। पुनः यदि उसे बलात् रोकने का प्रयत्न किया जाता है तो वह अधिक विक्षुब्ध होकर मुनष्य को पागलपन के कगार पर पहुँचा देता है, जैसे तीव्र गति से चलते हुए वाहन को यकायक रोकने का प्रयत्न भयंकर दुर्घटना का ही कारण बनता है, उसी प्रकार चित की चंचलता का एकाएक निरोध विक्षिप्तता का कारण बनता है ।
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प्रथमतः मानव-मन की गतिशीलता को नियंत्रित कर उसकी गति की दिशा बदलनी होती है। ज्ञान या विवेकरूपी लगाम के द्वारा उस मन रूपी दुष्ट अश्व को कुमार्ग से सन्मार्ग की दिशा में मोड़ा जाता है। इससे उसकी सक्रियता एकाएक समाप्त तो नहीं होती, किन्तु उसकी दिशा बदल जाती है, ध्यान में भी यही करना होता है। ध्यान में सर्वप्रथम मन को वासना रूपी विकल्पों से मोड़कर धर्म-चिन्तन में लगाया जाता है। अन्त में एक ऐसी स्थिति आ जाती है जब मन पूर्णतः निष्क्रिय हो, उसकी भागदौड़ समाप्त हो जाती है। ऐसा मन, मन न रहकर 'अमन' हो जाता है। मन हो 'अमन' बना देना ही ध्यान है।
इस प्रकार चैतसिक तनावों या विक्षोभों को समाप्त करने के लिए अथवा निर्विकल्प और शान्त चित्त-दशा की उपलब्धि के लिए ध्यान-साधना आवश्यक है। उसके द्वारा संकल्प-विकल्पों में विभक्त चित्त को केन्द्रित किया जाता है विविध वासनाओं आकांक्षाओं और इच्छाओं के कारण चेतना शक्ति अनेक रूपी में विखण्डित होकर स्वतः में ही संघर्षशील हो जाती है । १५ उस शक्ति का यह बिखराव ही हमारा आध्यात्मिक पतन है ध्यान इस चैरासिक विघटन को समाप्त कर चेतना को केन्द्रित करता है। चूंकि वह विघटित चेतना को संगठित करता है इसलिए वह योग (Unifications) है। ध्यान चेतना के संगठन की कला है। संगठित चेतना ही शक्तिस्रोत हैं, इसीलिए यह माना जाता है। कि ध्यान से अनेक आत्मिक लब्धियाँ या सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं।
चित्तधारा जब वासनाओं, आकांक्षाओं, के मार्ग से बहती है। तो वह वासनाओं, आकांक्षाओं इच्छाओं की स्वाभाविक बहुविधता के कारण अनेक धाराओं में विभक्त होकर निर्बल हो जाती है। ध्यान इस विभक्त एवं निर्बल चित्तधारा को एक दिशा में मोड़ने का प्रयास है। जब ध्यान की साधना या अभ्यास से चित्तधारा एक दिशा में बहने लगती है, तो न केवल वह सबल होती है, अपितु नियंत्रित होने से उसकी दिशा भी सम्यक होती है। जिस प्रकार बाँध विकीर्ण जलधाराओं को एकत्रित कर उन्हें सबल और सुनियोजित करता है। जिस प्रकार बांध द्वारा सुनियोजित जल शक्ति का सम्यक् उपयोग सम्भव हो पाता है उसी प्रकार ध्यान द्वारा सुनियोजित चेतनशक्ति का सम्यक् उपयोग सम्भव है।
संक्षेप में आत्मशक्ति के केन्द्रीकरण एवं उसे सम्यक् दिशा में नियोजित करने के लिए ध्यान-साधना आवश्यक है। यह चित्तवृत्तियों की निरर्थक भागदौड़ को समाप्त कर हमें मानसिक विक्षोभों एवं विकारों से मुक्त रखता है। परिणामतः वह आध्यात्मिक शान्ति और निर्विकल्प चित्त की उपलब्धि का अन्यतम साधन है।
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ध्यान के पारम्परिक लाभ
ध्यानशतक (झाणाज्झयन) में ध्यान से होने वाले पारम्परिक एवं व्यावहारिक लाभों की विस्तृत चर्चा हैं। उसमें कहा गया हैं कि धर्म ध्यान से शुभास्त्रव, संवर, निर्जरा और देवलोक के सुख प्राप्त होते हैं। शुक्ल ध्यान के भी प्रथम दो चरणों का परिणाम शुभास्तव एवं अनुत्तर देवलोक के सुख हैं, जबकि शुक्ल ध्यान के अन्तिम दो चरणों का फल
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