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वीतरागता से मुख मुड़ा नहीं सकती ।
इस दशा में श्रद्धान तो पूर्णता का हो गया है। खुद की पूर्ण होने की तमन्ना 'जाग' उठी है। लेकिन जो शरीर अपना नहीं, उसके प्रति राग घटाकर व्रत नियमों का अभ्यास नहीं हो पा रहा है। यह दशा उस शराबी जैसी है जो शराब के दुष्परिणामों को तो जान चुका है, शराब छोड़ने का इच्छुक भी है, लेकिन कुछ भी क्रियात्मक प्रगति नहीं कर पा रहा है ।
कुछ प्रगति नहीं हो रही है, इसलिए अपने दिल को कोसता रहता है, उस अनादि ममत्वपूर्ण आदतों पर विजय पाने को ही चाह रहा है। दिल से अपने गलतियों को दूर करने की इच्छा हो तो वे गलतियां निश्चित ही दूर हो जाती हैं।
इसलिए सम्यग्दर्शन की यह लाजवाब आत्मोन्नति की पार्श्वभूमि है। यह सम्यग्दर्शन आत्मा से परमात्मा बनने की प्रक्रिया में फौलादी, बुनियादी नींव है। बुनियादी नींव से ही ऊपर प्रासाद का स्थैर्य रहता है । कमजोर नींव पर बना प्रासाद मिट्टी में मिल जाता है । इस दशा को भी चतुर्थ गुणस्थान कहते हैं ।
स्वरूप की लगन का यह अद्भुत सामर्थ्य है कि इस लगन की तीव्रता में अत्यन्त कठिन मुनिव्रत भी सहज पलता है। इस लगन की मंदता में ११ प्रतिमा अनायास, बिना कष्ट से सहज आनन्द से पल जाती हैं। जब व्रत की सहजता हो तभी वे आत्मोन्नति के साधक बन सकते हैं । व्रत में कष्ट-पीड़ा का अनुभव सही अर्थों में निरर्थक हो जाता है । केवल क्रियाकांड ठहरता है । आत्मोन्नति से वे व्रत कोसों दूर रह जाते हैं, जिनका मूल्य मात्र देह-दंड के अलावा और कुछ नहीं रह जाता। इसलिए दर्शन-प्रतिमा मोक्षार्थी के जीवन में अनन्यसाधारण महत्त्व का स्थान वैसा ही पाती है, जितना चेतना का शरीरधारी में । अन्यथा मात्र कलेवर ! निरा मुर्दापन !
२. व्रत प्रतिमा - प्रतिमा शब्द भी अर्थपूर्ण है। प्रतिमा यानि प्रतिकृति । शुद्ध आत्मा की प्रतिकृति जहां हम करते हैं उसे हम जिनप्रतिमा कहते हैं।
जो संसारी आत्मा शुद्ध आत्मा होने जा रहा है, वह अपने शुद्ध आत्मा की प्रतिकृति रूप से ही मानो स्वीकार किया गया है। प्रतिमा शब्द ही साधक को अपूर्व उत्साह, मनोबल प्रदान करने वाला है ।
पहली दर्शन प्रतिमा में साधक की शुद्धात्म दशा का श्रद्धान तो पूर्ण हुआ था । अनादि संस्कार से जो इस शरीर पर प्यार था, उसे तो गलत समझने तक प्रगति हुई थी, लेकिन उसकी तरफ उपेक्षात्मक व्यवहार की शुरुआत नहीं हुई थी । लेकिन अब उस उपेक्षात्मक व्यवहार का प्रारंभ हुआ है। यहां आत्म-साक्षात्कारी पुरुष गृहस्थ के जो १२ व्रत हैं उनको धारण करता है। किसी भी छोटे-मोटे संयम के साथ पांचवां गुणस्थान शुरू हो जाता है।
५ अणुव्रत अहिंसापत
६२
सत्याणुव्रत
अस्तेयाणुव्रत
ब्रह्मचर्याणुव्रत
परिग्रह- परिमाणावत
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३ गुणव्रत देशव्रत
दिग्वत अनर्थदंड व्रत
कुल १२ व्रत
दूसरी प्रतिमा में ५ अणुव्रत की ही प्रतिमा होती है। लेकिन ३ गुणव्रत और ४ शिक्षाव्रत - इन सातों को शीलव्रत कहा जाता है । ये शीलव्रत अभ्यासरूप से पाले जाते हैं । ये सात शीलव्रत ही आगे की प्रतिमाएं बनती हैं। पहले ही बताया जा चुका है कि वीतरागता का मूल्य आंकने वाली, आत्मस्थिरता को ही सच्ची अहिंसा माना गया है। उपयोग की यत्र-तत्र भ्रमण से, राग-द्वेष के निर्माण होने से, वीतराग स्वरूप आत्मस्वभाव की दूरी बढ़ती जाती है ।
जो इस हिंसा से अपने को बचाना चाहता है, शुभ भाव को भी जब हिंसा समझकर उसे नगण्य करता जाता है, तब पर-जीवों की घातस्वरूप हिंसा का तो सर्वथा निषेध सहज ही हो जाता है ।
उसकी तो इच्छा महाव्रत रूप संयम पालने की है, एकेन्द्रियों की हिंसा से भी बचने की है, लेकिन अभी तीन चौकड़ी रूप प्रत्याख्यानावरण कषाय के अभाव की योग्यता प्राप्त हुई नहीं है, उसकी खुद की भी उतनी तीव्र विशुद्धता प्रकट हुई नहीं है, इसलिए महाव्रत तो नहीं हुआ है, तो भी पूर्ण व्रत की ही तमन्ना है जो उनकी पूर्णता नहीं हो रही है, उसे अपनी असमर्थता, दुर्वलता जानकर, पछतावा करते हुए एकेन्द्रियों की भी हिंसा न हो, यही यत्नाचार जारी रखता है ।
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गृहस्थ होने से उद्यमी, आरंभी विरोधी हिंसा तो नहीं टाल सकता, लेकिन संकल्पी हिसा तो वह प्रतिज्ञापूर्वक नहीं ही करता ।
गृहस्थी होने से पूर्ण रूप से अल्पव्रत नहीं पाल सकता, लेकिन शक्य कोटि के स्तर पर जितना बने, उतना उच्च स्तर पर 'सत्यादि अणुव्रत' होने पर भी महाव्रत जैसा पालता है । यह अचरज की बात नहीं, यह सम्यग्दर्शन का अद्भुत सामर्थ्य है । यह दिल की सफाई की
आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
४ शिक्षाव्रत
सामायिक प्रोषधोपवास
अतिथिसंविभाग भोगोपभोगपरिमाण
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