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-यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - जैन साधना एवं आचारपरमार्थ और सत्य के सम्बन्ध में जो अनेक प्रान्त धारणाएँ आती हैं एवं जन्म-मरण की परम्परा और दुःख की मूल यही अविद्या है। जिस प्रकार असदाचरण होता है उनका आधार यही मोह है। मिथ्यात्व, मोह या जैन-दर्शन में मिथ्यात्व की पूर्वकोटि नहीं जानी जा सकती, उसी प्रकार अविद्या के कारण व्यक्ति की दृष्टि दूषित होती है और परिणामस्वरूप बौद्ध-दर्शन में भी अविद्या की पूर्वकोटि नहीं जानी जा सकती है। यह व्यक्ति की परम मूल्यों के सम्बन्ध में प्रान्त धारणाएँ बन जाती हैं। वह एक ऐसी सत्ता है जिसको समझ सकना कठिन है। हमें बिना अधिक उन्हें ही परम मूल्य मान लेता है जो कि वस्तुत: परम मूल्य या सर्वोच्च गहराइयों में उतरे इसके अस्तित्व को स्वीकार कर लेना पड़ेगा। अविद्या मूल्य नहीं होते हैं।
समस्त जीवन की पूर्ववर्ती आवश्यक अवस्था है, इसके पूर्व कुछ नहीं; जैन-दर्शन में अविद्या और विद्या का अन्तर करते हुए समयसार क्योंकि जन्म-मरण की प्रक्रिया का कहीं आरम्भ नहीं खोजा जा सकता में आचार्य कुन्दकुन्द बताते हैं कि जो पुरुष अपने से अन्य पर-द्रव्य है; लेकिन दूसरी ओर इसके अस्तित्व से इन्कार भी नहीं किया जा सचित्त स्त्री-पुत्रादिक, अचित्त धनधान्यादिक, मिश्र ग्रामनगरादिक-इनको सकता है। स्वयं जीवन या जन्म-मरण की परम्परा इसका प्रमाण है कि ऐसा समझे कि मेरे हैं, ये मेरे पूर्व में थे, इनका मैं पहले भी था तथा ये अविद्या उपस्थित है अविद्या का उद्भव कैसे होता है, यह नहीं बताया जा मेरे आगामी होंगे; मैं भी इनका आगामी होऊँगा ऐसा झूठा आत्म विकल्प सकता है। अश्वघोष के अनुसार-'तथता' से ही अविद्या का जन्म होता करता है वह मूढ़ है और जो पुरुष परमार्थ को जानता हुआ ऐसा झूठा है।२० डा. राधाकृष्णन् की दृष्टि में बौद्ध-दर्शन में अविद्या उस परम विकल्प नहीं करता है, वह मूढ़ नहीं है, ज्ञानी है।१९
सत्ता, जिसे आलयविज्ञान, तथागतधर्म, शून्यता, धर्मधातु एवं तथता जैन-दर्शन में अविद्या या मिथ्यात्व केवल आत्मनिष्ठ (Sub- कहा गया है, की वह शक्ति है, जो विश्व के भीतर से व्यक्तिगत जीवनों jective) ही नहीं है, वरन् वह वस्तुनिष्ठ भी है। जैन-दर्शन में की श्रृंखला को उत्पन्न करती है। यह यथार्थ सत्ता ही अन्दर विद्यमान मिथ्यात्व का अर्थ है- सम्यक् ज्ञान का अभाव या विपरीत ज्ञान। उसमें निषेधात्मक तत्त्व है हमारी सीमित बुद्धि इसकी तह में इससे अधिक और एकान्तिक दृष्टिकोण मिथ्याज्ञान है। दूसरे जैन-दर्शन में मिथ्यात्व प्रवेश नहीं कर सकती।२१ अकेला ही बन्धन का कारण नहीं है। वह बन्धन का प्रमुख कारण
सामान्यतया अविद्या का अर्थ चार आर्यसत्यों का ज्ञानाभाव है। होते हुए भी उसका सर्वस्व नहीं है। मिथ्या-दर्शन के कारण ज्ञान माध्यमिक एवं विज्ञानवादी विचारकों के अनुसार इन्द्रियानुभूति के विषय दूषित होता है और ज्ञान के दूषित होने से आचरण या चारित्र दूषित इस जगत् की कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है या परतंत्र एवं सापेक्षित है, इसे होता है। इस प्रकार मिथ्यात्व अनैतिक जीवन का प्रारम्भिक बिन्दु है यथार्थ मान लेना ही अविद्या है। दूसरे शब्दों में, अयथार्थ अनेकता को
और अनैतिक आचरण उसकी अन्तिम परिणति है। नैतिक जीवन के यथार्थ मान लेना यही अविद्या का कारण है, इसी में से वैयक्तिक अहं लिए मिथ्यात्व से मुक्त होना आवश्यक है, क्योंकि जब तक दृष्टि का प्रादुर्भाव होता है और यहीं से तृष्णा का जन्म होता हैं। बौद्ध-दर्शन दूषित है, ज्ञान भी दूषित होगा और जब तक ज्ञान दूषित है तब तक के अनुसार भी अविद्या और तृष्णा (अनैतिकता) में पारस्परिक कार्यआचरण भी सम्यक् या नैतिक नहीं हो सकता। नैतिक जीवन में कारण सम्बन्ध है। अविद्या के कारण तृष्णा और तृष्णा के कारण अविद्या प्रगति के लिए प्रथम शर्त है-मिथ्यात्व से मुक्त होना।
उत्पन्न होती है। जिस प्रकार जैन-दर्शन में मोह के दो कार्य दर्शन-मोह जैन दर्शनिकों की दृष्टि में मिथ्यात्व की पूर्वकोटि का पता नहीं और चारित्र-मोह-हैं उसी प्रकार बौद्ध-दर्शन में अविद्या के दो कार्यलगाया जा सकता, वह अनादि है, फिर भी वह अनन्त नहीं माना गया ज्ञेयावरण एवं क्लेशावरण हैं। ज्ञेयावरण की तुलना दर्शन-मोह से और है। जैन-दर्शन की पारिभाषिक शब्दावली में कहें तो भव्य जीवों की क्लेशावरण की तुलना चारित्र-मोह से की जा सकती है। जिस प्रकार अपेक्षा से मिथ्यात्व अनादि और सान्त है और अभव्य जीवों की अपेक्षा वैदिक-परम्परा में माया को अनिर्वचनीय माना गया है उसी प्रकार बौद्धसे वह अनादि और अनन्त है। आत्मा पर अविद्या या मिथ्यात्व का परम्परा में भी अविद्या को सत् और असत् दोनों ही कोटियों से परे माना आवरण कब से है यह पता नहीं लगाया जा सकता है, यद्यपि अविद्या गया है। विज्ञानवाद एवं शून्यवाद के सम्प्रदायों की दृष्टि में नानारूपात्मक या मिथ्यात्व से मुक्ति पाई जा सकती है। एक ओर मिथ्यात्व का कारण जगत् को परमार्थ मान लेना अविद्या है। मत्रेयनाथ ने अभूतपरिकल्प अनैतिकता है तो दूसरी ओर अनैतिकता का कारण मिथ्यात्व है। इसी (अनेकता का ज्ञान) की विवेचना करते हुए बताया कि उसे सत् और प्रकार सम्यक्त्व का कारण नैतिकता और नैतिकता का कारण सम्यक्त्व असत् दोनों ही नहीं कहा जा सकता है। वह सत् इसलिए नहीं है क्योंकि है। नैतिक आचरण के परिणामस्वरूप सम्यक्त्व या यथार्थ दृष्टिकोण का परमार्थ में अनेकता या द्वैत का कोई अस्तित्व नहीं है और वह असत् उद्भव होता है और सम्यक्त्व या यथार्थ दृष्टिकोण के कारण नैतिक इसलिए नहीं है कि उसके प्रहाण से निर्वाण का लाभ होता है।२२ इस आचरण होता है।
प्रकार हम देखते हैं कि बौद्ध-दर्शन के परवर्ती सम्प्रदायों में अविद्या का
स्वरूप बहुत कुछ वेदान्तिक माया के समान बन गया है। बौद्ध-दर्शन में अविद्या का स्वरूप
बौद्ध-दर्शन में प्रतीत्यसमुत्पाद की प्रथम कड़ी अविद्या ही समीक्षा मानी गयी है। अविद्या से उत्पन्न व्यक्तित्व ही जीवन का मूलभूत पाप है। बौद्ध दर्शन के विज्ञानवाद और शून्यवाद के सम्प्रदायों में
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