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कारण है। ध्यान एक ऐसी अवस्था है जब आत्मा पूर्णरूप से 'स्व' में स्थित होता है और आत्मा का 'स्व' में स्थित होना ही मुक्ति या निर्वाण की अवस्था है। अतः ध्यान ही मुक्ति बन जाता है।
योग दर्शन में ध्यान की समाधि का पूर्व चरण माना गया है। उसमें भी ध्यान से ही समाधि की सिद्धि होती है। ध्यान जब अपनी पूर्णता पर पहुंचता है तो वही समाधि बन जाता है। ध्यान की इस निर्विकल्प दशा को न केवल जैन दर्शन में, अपितु सम्पूर्ण श्रमण परम्परा में और न केवल सम्पूर्ण श्रमण परम्परा में अपितु सभी धर्मों की साधना विधियों में मुक्ति का अंतिम उपाय माना गया है। योग चाहे चित्त वृत्तियों के निरोध रूप में निर्विकंकल्प समाधि हो या आत्मा को परमात्मा से जोड़ने की कला हो, वह ध्यान ही है।
ध्यान और समाधि - सर्वार्थसिद्धि और तत्वार्थवार्तिक में समाधि के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जिस प्रकार कोष्ठागार में लगी हुई आग को शान्त करना आवश्यक है, उसी प्रकार मुनि - जीवन के शीलवतों में लगी हुई वासना या आकंक्षारूपी अग्नि का प्रशमन करना भी आवश्यक है। यही समाधि है। (२५) घवला में आचार्य वीरसेन ने ज्ञान, दर्शन और चारित्र में सम्यक् अवस्थिति को ही समाधि कहा है (२६), वस्तुतः चित्तवृत्ति का उद्वेलित होना या उद्विग्न होना ही असमाधि है और उनकी इस उद्विग्नता का समाप्त हो जाना ही समाधि है । उदाहरण के रूप में जब वायु के संयोग से जल तरंगायित होता है तो उस तरंगित जल में तल में रही हुई वस्तुओं का बोध नहीं होता, उसी प्रकार तनावयुक्त उद्विग्न चित्त में आत्मा के शुद्ध स्वरूप का साक्षात्कार नहीं होता है । चित्त की इस उद्विग्नता का या तनावयुक्त स्थिति का समाप्त होना ही समाधि है। ध्यान भी वस्तुतः चित्त की वह निष्प्रकम्प अवस्था है जिसमें आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप का साक्षी होता है। वह चित्त की समत्वपूर्ण स्थिति है। अतः ध्यान और समाधि समानार्थ हैं, फिर भी दोनों में एक सूक्ष्म अन्तर है। वह अन्तर इस रूप में है कि ध्यान समाधि का साधन है और समाधि साध्य है। योगदर्शन के अष्टांगयोग में समाधि का पूर्व चरण ध्यान माना गया है। ध्यान जब सिद्ध हो जाता है, तब वह समाधि बन जाता है वस्तुतः दोनों एक ही हैं । ध्यान की पूर्णता समाधि में है। यद्यपि दोनों ही चित्तवृत्तियों की निष्प्रकंपता या समत्व की स्थिति आवश्यक है। एक में उस निष्प्रकम्पता या समत्व का अभ्यास होता है और दूसरे में वह अवस्था सहज हो जाती है। ध्यान और योग यहाँ ध्यान का योग से क्या संबंध है, यह भी विचारणीय है। जैन परम्परा में सामान्यता मन, वाणी और शरीर की गतिशीलता को योग कहा जाता है ( २८ ) । उसके अनुसार सामान्य रूप से समग्र साधना और विशेष रूप से ध्यान-साधना का प्रयोजन योग निरोध ही है। वस्तुतः मानसिक, वाचिक और शारीरिक क्रियाओं में, जिन्हे जैन परम्परा में योग कहा गया है, मन की प्रधानता होती है। वाचिक योग और कायिक-योग, मनयोग पर ही निर्भर करते हैं। जब मन की चंचलता समाप्त होती है, तो सहज ही शारीरिक और वाचिक क्रियाओं में शैथिल्य आ जाता है, क्योंकि उनके मूल में व्यक्त या अव्यक्त
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तत्त्वार्थ वार्तिक ६ / २४/८
धवला पुस्तक ८ पृ. ८८
- तत्वार्थ राजवार्तिक ६/१/१२
तत्वार्थसूत्र ६ / १
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