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साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि
में 'महाकरूणा' कहा गया है, का ऐसा अमल, धवल स्रोत फूट पड़ता है कि वह (योगी) अन्य प्राणियों का भी उपकार करना चाहता है, उन्हें श्रेयस् और कल्याण का मार्ग दिखाकर अनुगृहीत करना चाहता है। यह सब स्वभावगत परिणामधारा से सम्बन्ध है। वहाँ कृत्रिमता का लेश भी नहीं होता।
तारे की अपेक्षा सूर्य का प्रकाश अनेक गुना अधिक, अवगाढ़ तथा तीव्र तेजोमय होता है। प्रभादृष्टि का बोधप्रकाश भी अत्यन्त ओजस्वी एवं तेजस्वी होता है। कान्ता दृष्टि की अपेक्षा प्रभादृष्टि के प्रकाश की प्रगाढ़ता बहुत अधिक बढ़ी चढ़ी होती है। सूर्य के प्रकाश से सारा विश्व प्रकाशित होता है। उसके सहारे सब कुछ दीखता है। ऐसी ही स्थिति प्रभा दृष्टि की है। वहाँ पहुँचे हुए साधक को समग्र पदार्थों का यथार्थ ज्ञान हो जाता है। प्रचुर तेजोमयता तथा प्रभाशालिता के कारण आचार्यप्रवर ने इस दृष्टि का नाम 'प्रभा' रखा, जो बहुत संगत है।
जहाँ इस कोटि का बोधमूलक प्रकाश उद्भासित होता है, वहाँ साधक की स्थिति बहुत ऊँची हो जाती है। वह सर्वथा अखंड आत्मध्यान में निरत रहता है। ऐसा होने से उसकी मनोभूमि विकल्पावस्था से प्रायः ऊँची उठ जाती है। ऐसी उत्तम, अविचल, ध्यानावस्था से आत्मा में अपरिसीम सुख का स्रोत फूट पड़ता है। वह सुख परमशान्ति । रूप होता है, जिसे पाने के लिए साधक साधना-पथ पर गतिमान् हुआ। वह ऐसा सुख है, जिसमें आत्मेतर किसी भी पदार्थ का अवलम्बन नहीं होता। वह परवश से सर्वथा अस्पृष्ट होता है।
यहाँ साधक का प्रातिभ ज्ञान या अनुभूतिप्रसूत ज्ञान इतना प्रबल एवं उज्ज्वल हो जाता है कि उसे शास्त्र का प्रयोजन नहीं रहता। ज्ञान की प्रत्यक्ष या साक्षात् उपलब्धि उसे हो जाती है। आत्मसाधना की यह बहुत ऊँची स्थिति है। उस समाधिनिष्ठ योगी की साधना के परम दिव्य भाव- कण आस-पास के वातावरण में एक ऐसी पवित्रता संभृत कर देते है कि उस महापुरुष के सान्निध्य में आनेवाला जन्मजात शत्रुभावापन्न प्राणी भी अपना वैर भूल जाते हैं। यह कोई अतिशयोक्ति नहीं है, सचाई है। ऐसे महान् योगी की परमदिव्य करुणा, जिसे जैन एवं बौद्ध वाङ्मय
८. परादृष्टि. :
सूरिवर्य ने परादृष्टि को चन्द्रमा की प्रभा से उपमित किया है। सूर्य का प्रकाश बहुत तेजस्वी तो होता है पर उसमें उग्रता होती है। इसलिए आलोक देने के साथ-साथ वह उत्ताप भी उत्पन्न करता है। सूर्य की अपेक्षा चन्द्र के प्रकाश में कछ अदभुत वैशिष्टय है। वह अत्यन्त शीतल परम सौम्य तथा प्रशान्त होता है। सहज रूप में सब के लिए आनन्द, आहलाद और उल्लास प्रदान करता है। प्रकाशकता की दृष्टि से सूर्य के प्रकाश से उसमें न्यूनता नहीं है। सूर्य दिन में समग्र को प्रकाशित करता है तो चन्द्रमा रात में। दोनों का प्रकाश अपने आप में परिपूर्ण हैं. पर हृद्यता, मनोज्ञता की दृष्टि से चन्द्रमा का प्रकाश निश्चय ही सूर्य के प्रकाश से उत्कृष्ट कहा जा सकता है।
परादृष्टि साधक की साधना का उत्कृष्टतम रूप है। चन्द्र की ज्योत्स्ना सारे विश्व को उद्योतित करती है। उसी तरह अर्थात् सोलह कलायुक्त, परिपूर्ण चन्द्र की ज्योत्स्ना के सदृश परादृष्टि में प्राप्त बोध-प्रभा समस्त विश्व को, जो ज्ञेयात्मक है, उद्योतित करती है। साधक इस अवस्था में इतना आत्मविभोर हो जाता है कि उसकी बोध-ज्योति उद्योत तो अव्यावाध रूप में सर्वत्र करती है. पर अपने स्वरूप में अधिष्ठित रहती है। उद्योत्य/प्रकाश्य या ज्ञेय रूप नहीं बन जाती। चन्द्र ज्योत्स्ना यद्यपि समस्त जागतिक पदार्थों को आभामय बना देती है, पर पदार्थमय नहीं बनती, वैसे ही परादृष्टि में पहुँचा हुआ साधक ऐसी
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__ जैन साधना एवं योग के क्षेत्र में आचार्य हरिभद्र सूरि की अनुपम देन : आठ योग दृष्टियाँ |
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