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साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि
५. स्थिरा दृष्टि
स्थिरा दृष्टि को रत्न की प्रभा से उपमित किया गया है । साधक की यह वह स्थिति है, जहाँ उसे प्राप्त बोधज्योति स्थिर हो जाती है । रत्न की प्रभा कभी मिटती नहीं । वह सहजता प्रद्दीप्त रहती है । वैसे ही स्थिरा दृष्टि में प्राप्त बोधमय उद्योत स्थिर रहता है । क्योंकि तब तक साधक का ग्रन्थि-भेद हो चुकता है। राग, द्वेष आदि विभाव-ग्रथित दुरुह कर्म-ग्रंथि वहाँ खुल चुकती है । दृष्टि सम्यक् हो जाती है । मिथ्या अध्यास मिट जाता । यहाँ से भेदविज्ञान की प्रक्रिया प्रारंभ होती है। आत्मा और पर पदार्थों की भिन्नता का साधक अनुभव करता है । पर में जो स्व की बुद्धि थी, उस पर सहसा एक चोट पड़ती है, साधक के अन्तरतम में आत्मोन्मुख भाव हिलोरें लेने लगते हैं । इतना ही नहीं, जैसे रत्न का प्रकाश पाषाण यंत्र आदि पर घर्षण, परिष्करण एवं परिमार्जन से और बढ़ जाता है, उसी प्रकार सम्यकदृष्टि साधक का बोध, सद् अभ्यास, आत्मानुभूति, सचिन्तन आदि द्वारा उज्ज्वल से उज्ज्वलतर होता जाता है ।
रत्न का प्रकाश स्वावलम्बी होता है । उसे अपने लिए अन्य पदार्थ की अपेक्षा नहीं होती । तेल समाप्त हो जाने पर जैसे दीपक बुझ जाता है, वैसी बात रत्न के साथ नहीं है । न उसे तैल चाहिए और न बाती । वह प्रकाश निरपाय या निर्बाध है । वह अपाय या बाधा से प्रतिबद्ध एवं व्याहत नहीं होता। उसे दूसरा अवलम्बन नहीं चाहिए । यही स्थिति स्थिरादृष्टि की है । स्थिरादृष्टि का बोध परावलम्बी नहीं होता, स्वावलम्बी होता है। उसे कहीं से कोई हानि पहुँचने की आशंका नहीं रहती ।
तृण, कपडे, काष्ठ और दीपक का प्रकाश दूसरों के लिए परिताप कारक भी हो सकता है। यदि ठीक से उपयोग न किया जाए तो उनसे आग आदि लगकर हानि भी हो सकती है । रत्न के प्रकाश में ऐसा नहीं है । वह
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सर्वथा अपरितापकर है। स्थिरा दृष्टि का बोध भी किसी के लिए परितापकर नहीं होता। वह मृदुल और शीतल होता है, क्योंकि क्रोध, मान, माया, लोभ रूप कषाय वहाँ उपशान्त हो जाते हैं ।
परिताप न देने की बात निषेधात्मक है । विध्यात्मक दृष्टि से स्थिरादृष्टि का बोधमय प्रकाश रत्न की प्रभा की तरह औरों के लिए प्रसादकर होता है । रत्न की कान्ति को देखने से जैसे नेत्र शीतल होते है, चित्त उल्लसित होता है, उसी तरह स्थिरादृष्टि में प्राप्त बोध से आत्मा में परितोष होता है । प्रसन्नता होती है । जिस प्रकार रत्न को देख लेने वाला तुच्छ काच जैसी वस्तु की ओर आकृष्ट नहीं होता, उसी प्रकार स्थिरादृष्टि के वोध द्वारा जिसे आत्मदर्शन प्राप्त हो जाता है, फिर आत्मेतर - पर या बाह्य वस्तुओं में उसे विशेष औत्सुक्य रह नहीं जाता ।
जहाँ आभामय रत्न पड़ा है, उसके चारों ओर जो भी होता है, यथावत् एवं स्पष्ट दिखाई देता है । वैसे ही स्थिरादृष्टि में प्राप्त बोध से आत्मदर्शन तो होता ही है, तदितर पदार्थ भी दृष्टिगोचर होते हैं। इससे द्रष्टा या दर्शक दृश्यमान वस्तु का उपयोगिता, अनुपयोगिता की दृष्टि से यथार्थ मूल्यांकन कर पाता है ।
६. कान्तादृष्टि -
ग्रंथकार ने कान्ता दृष्टि को तारे की प्रभा की उपमा है । रत्न का प्रकाश हृद्य होता है, उत्तम होता है, पर तारे के प्रकाश जैसी दीप्ति उसमें नहीं होती । तारे का प्रकाश रत्न के प्रकाश से अधिक उद्दीप्त होता है । उसी तरह स्थिरादृष्टि में प्राप्त बोध की अपेक्षा कान्तादृष्टि का बोध अधिक प्रगाढ़ होता है । तारे की प्रभा आकाश में स्वाभाविक रूप में होती है, सुनिश्चित होती है, अखंडित होती है । उसी प्रकार कान्तादृष्टि का बोध - उद्योत अविचल, अखंडित और प्रगाढ़ रूप में चिन्मय आकाश में सहजरूपेण समुदित रहता है ।
जैन साधना एवं योग के क्षेत्र में आचार्य हरिभद्र सूरि की अनुपम देन : आठ योग दृष्टियाँ
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