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________________ “१ -आराधनास्थान-प्रवेश, २-द्वार-पूजा, ३-ऊर्ध्व, दक्ष एवं वाम द्वारशाखा पूजन, ४आसन-उपवेशन, ५- विविध शद्धियाँ. स्थान. देह, मन. दिशा. भत. मन्त्र. द्रव्य शद्धि तथा देव शद्धि, ६- भावशुद्धि के लिये पीठ, यन्त्र, प्रतिमा आदि की स्थापना-पूर्वक विविर्धापचारी पूजा, स्तोत्रपाठ, ८इष्टमन्त्रजप, ९- ध्यान तथा १०- क्षमाप्रार्थना।" उपर्युक्त दस प्रकारों के सम्पादन के लिये उपाय के रूप में भी अनेक विधान आवश्यक माने गये हैं। जिनमें सर्वप्रथम साधना की इच्छावाले व्यक्ति को 'सद्गर से मन्त्र प्राप्त करना चाहिये। उसके लिये शुभ मुहूर्त में दीक्षा लेने का विधान है। दीक्षा से पूर्व देहशुद्धि के लिये ३, २ अथवा १ उपवास आवश्यक है। जिसमें अन्नत्याग अवश्य हो। ___ दीक्षित होने के पश्चात् अपने आराध्य देव की 'नित्यपूजा' सम्पन्न करके मन्त्रजप करो। अन्य सम्प्रदायों में मन्त्र के १- ऋषि, २- छन्द, ३- देवता, ४- बीज, ५- शक्ति और ६- कीलक से युक्त विनियोग का विधान होता है, जब कि जैन सम्प्रदाय में यह विधान नहीं होता है। परन्तु 'न्यास-विधान' का तात्पर्य स्थापना है। यह स्थापना देह-तन्त्र को चैतन्यमय और पवित्र बनाने. रखने तथा शरीर स्वास्थ्य के लिये किया जाता है। 'करन्यास' और 'पञ्चाङ्ग न्यास' के अतिरिक्त कहीं-कहीं 'मन्त्रबीज-न्यास', 'मन्त्रन्यास' भी किये जाते हैं। न्यास के लिये तत्त्वमुद्रा - (अंगुष्ठ पर अनामिका रखने से बनी) का प्रयोग होता है। करन्यास में -अंगुष्ठादि- पाँच अँगुलियाँ और करतल-करपृष्ठ पर तथा पञ्चाङग न्यास में हृदय, कण्ठ, तालु, भ्रूमध्य, एवं ब्रहारन्ध्र पर न्यास किये जाते हैं। विशिष्ट आराधना-विधियों में सर्वाङ्ग न्यास' भी होता है, जिसमें शरीर के प्रधान-प्रधान अडोंग पर मन्त्र, बीज मन्त्र अथवा मन्त्राङगवर्गों का उपयोग विहित है। "क्षिप ऊँ स्वाहा' इन पाँच अक्षरों के न्यास को जैनतन्त्र में 'सकलीकरण' की संज्ञा दी है। ये पाँचों अक्षर पांच तत्वों का प्रतिनिध्य करते हैं। इनके न्यास से पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश तत्व विषम नहीं बन जाएँ तथा अपना समत्य देह में यथोचित बनाये रखें इसके लिये होता है। यह न्यास 'जानु, नाभि, हृदय, मुख एवं भाल' पर किया जाता है। इसी को 'देह-रक्षा विधान' भी कहते हैं। __ आत्मरक्षा के लिये जैनाचार में 'वज्रपञ्जर-स्तोत्र' द्वारा 'कवच-निर्माण' की विधि की जाती है, जिसमें 'नमस्कार-मन्त्र' के नौ पदों के नौ मन्त्र-पद क्रमशः “मस्तक, मुखपट, अंगरक्षा, आयुधधारण, पादरक्षार्थ उपकरण धारण, वज्रमयीशिला पर स्थिति, वज्रमय बाह्य आवरण, खातिका-निर्माण तथा वज्रमय-पिधान” की भावना प्रमुख हैं। इसके पश्चात् 'हृदय-शुद्धि' (हृदय पर हाथ रखकर हृदय से पाप-विचारों को दूर करने के लिये) "ऊँ विमलाय विमलचिन्ताय ज्वी श्वीं स्वाहा" मन्त्र द्वारा की जाती है। यहीं आगे और 'कल्मष-दहन' के लिये भी मन्त्रोच्चारण होता है। (ये दोनों विधियाँ प्रारम्भ में भी हो सकती हैं किन्तु आभ्यन्तर-शुद्धि की दृष्टि से यहाँ निर्दिष्ट हैं।) तदनन्तर 'अष्टाङ्ग न्यास' -(१- शिखा, २-मस्तक, ३-नेत्रद्वय, ४-नासिका, ५-मुख, ६-कण्ठ, ७-नाभि और ८-पाद इन भागों में अवरोह क्रम से न्यास) विधेय बतलाया है। . विधि के समय महत्त्वपूर्ण छह दिशाओं से आकाश में विचरण करती हुईं विविध शक्तियाँ अथवा वातावरण किसी प्रकार का विन न करें, उसके लिये छोटिका-क्रिया (दिग्बन्ध के लिये) होती है। __ शास्त्र एवं लोक दोनों ही साधना-मार्ग में मान्य होते हैं क्योंकि शास्त्रों में शास्त्रीय-सकत होते हैं जबकि पूर्ववर्ती आचार्यों द्वारा स्वीकृत विधियों को परम्परा उसे वास्तविकता प्रदान करती है। इस दृष्टि से (१०८) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210830
Book TitleJain Mantra Sadhna Paddhati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRudradev Tripathi
PublisherZ_Mahasati_Dway_Smruti_Granth_012025.pdf
Publication Year1992
Total Pages6
LanguageHindi
ClassificationArticle & Mantra Tantra
File Size629 KB
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