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________________ उपासना शब्द अपने इस उपर्युक्त अर्थ के साथ ही और भी दो अर्थों को अपने में छिपाये हुए है। वे हैं - 'उप+आ+असन' अर्थात् 'इष्टदेव के समीप पहुँचने के लिये सांसारिक प्रवृत्तियों का सभी ओर से असन = त्याग' और 'इष्टदेव की सत्ता में पूर्ण विश्वास' । इन अर्थों की उपलब्धि के लिये 'अस = भुवि - सत्तायाम्' और 'असु=क्षेपे' (क्रमशः द्वितीय - अदादिगण एवं चतुर्थ दिवादि गण पठित) धातुओं का उपयोग करना होगा। इस प्रकार उपासना का अर्थ होगा - " इष्टदेव की सत्ता में विश्वास रख कर सांसारिक प्रवृत्तियों का त्याग करते हुए उसके निकट पहुँचने की क्रिया भावना और स्थिर निष्ठा । " यह उपासना सर्वोच्च पदप्राप्त, सर्वविध दोषविमुक्त, मनुष्यों की अपेक्षा शरीर, सम्पदा, ऋद्धि-सिद्धि और बुद्धि में सर्वश्रेष्ठ देव-देवी की कोटि प्रविष्ट एवं देव - देवियों द्वारा ज्ञात ईश्वरी शक्ति सम्पन्नों की करने का विधान जैनशासन में उपदिष्ट है, परम्परा - प्राप्त है तथा उत्तम पुरुषों द्वारा स्वीकृत है, अतः अवश्य करणीय है। जैन- शासन में देव-देवी विषयक धारणा भारतीय संस्कृति की चिन्तनधारा में ईश्वर-विषयका मान्यता स्व-स्वसम्प्रदायानुसार पृथक् पृथक् है । यहाँ जैन- शासन का चिन्तन प्रसङ्ग प्राप्त है। अतः तत्सम्बन्धी विचार यहाँ प्रस्तुत हैं - “प्रायः तीन हजार वर्ष पूर्व उत्पन्न और कलिकाल में कृल्पवृक्ष के समान सहज लोकप्रिय, आदेय नामकर्मवाले तेईसवें तीर्थंङ्क भगवान् पार्श्वनाथ प्रभु को योग्य समय पर त्रिकालज्ञान - केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। समवसरण में उन्होंने साधु-साध्वी श्रावक और श्राविका रूप चतुर्विध संघ की स्थापना की। उस प्रसङ्ग पर पार्श्वनाथ भगवान् के शासन में अथवा उनके श्रीसङ्घ में योगक्षेम-अर्थात् प्रजा के बाह्य - आभ्यन्तर, धार्मिक और आध्यात्मिक उत्कर्ष में सहयोगी बन सकें उसके लिये किसी भी एक देव और देवी की नियुक्ति होती है। यह व्यवस्था प्राचीन काल से चली आ रही है। इस व्यवस्था के अनुसार भगवान् पार्श्वनाथ के अधिष्ठायक संरक्षक के रूप में, यक्ष के रूप में पार्श्व और यक्षिणी के रूप में पद्मावती देवी की नियुक्ति हुई थी। लोकोत्तर शासन में भी देव देवियों की सहायता अनिवार्य होती है तथा तीर्थङ्क देव भी इस अनिवार्यता का आदर करते हैं, यह बात विशेषतः ध्यातव्य है । देव-देवियों का निवास आकाश स्वर्ग में है और हम जिस धरती पर रहते हैं उस धरती के नीचे पाताल में भी है। संसार में सुख-दुःख, अच्छा-बुरा करने-कराने वाले जो कोई देव देवियाँ होते हैं ( प्रायः) वे सब पातालवासी ही होते हैं। वैसे देव-देवियाँ भी सांसारिक जीव ही हैं । किन्तु मनुष्यों की अपेक्षा शरीर, सम्पत्ति, बुद्धि, ऋद्धि-सिद्धि के सम्बन्ध में वे सर्वश्रेष्ठ होने के कारण 'देव' शब्द से सम्बोधित होते हैं । जैसे देव के वास्तविक अर्थ में नहीं, अपितु देव के रूप में वस्तुतः ज्ञात ईश्वरी व्यक्तियों की ही भक्ति-उपासना इष्टकार्य और मनोरथों को पूर्ण करती है, उसी प्रकार इन सांसारिक देवों की उपासना भी विशिष्ट शक्ति के कारण यथाशक्ति जीवों की बाह्य और आभ्यन्तर दोनों प्रकार की इष्ट सिद्धियों को पूर्ण करने में सहायक होते हैं। इसीलिये उन्हें देव के रूप में सम्बोधित किया जाता है। इन देव-देवियों के शरीर के लिये एक विशिष्ट बात यह है कि उनके नहीं होते किन्तु हमसे पूर्णतः भिन्न होते हैं। तात्पर्य यह कि वे दिखने में हम जैसे परमाणुओं से बने होते हैं। Jain Education International (१०५) For Private & Personal Use Only शरीर हमारे शरीर जैसे होते हुए भी भिन्न पुद्गल www.jainelibrary.org
SR No.210830
Book TitleJain Mantra Sadhna Paddhati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRudradev Tripathi
PublisherZ_Mahasati_Dway_Smruti_Granth_012025.pdf
Publication Year1992
Total Pages6
LanguageHindi
ClassificationArticle & Mantra Tantra
File Size629 KB
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