SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 6
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म में प्रायश्चित्त एवं दण्ड-व्यवस्था 275 रात्रि के आचरित पापों का चिन्तन कर उनकी आलोचना करना रात्रिक प्रसङ्ग में व्युत्सर्ग और कायोत्सर्ग पर्यायवाची के रूप में ही प्रयुक्त प्रतिक्रमण है। (3) पाक्षिक-पक्ष के अन्तिम दिन अर्थात् अमावस्या हुए हैं। एवं पूर्णिमा के दिन सम्पूर्ण पक्ष में आचरित पापों का विचार कर उनकी आलोचना करना पाक्षिक प्रतिक्रमण है। (4) चातुर्मासिक- तप-प्रायश्चित्त कार्तिकी पूर्णिमा, फाल्गुनी पूर्णिमा एवं आषाढ़ी पूर्णिमा को चार महीने सामान्य दोषों के अतिरिक्त विशिष्ट दोषों के लिए तप प्रायश्चित्त के आचरित पापों का विचार कर उनकी आलोचना करना चातुर्मासिक का विधान किया गया है। किस प्रकार के दोष का सेवन करने पर प्रतिक्रमण है। (5) सांवत्सरिक- प्रत्येक वर्ष में संवत्सरी महापर्व किस प्रकार के तप का प्रायश्चित्त करना होता है। उसका विस्तारपूर्वक (ऋषि पञ्चमी) के दिन वर्ष भर के पापों का चिन्तन कर उनकी आलोचना विवेचन निशीथ, बृहत्कल्प और जीतकल्प में तथा उनके भाष्यों में करना सांवत्सरिक प्रतिक्रमण है। मिलता है। निशीथ सूत्र में तप प्रायश्चित्त के योग्य अपराधों की विस्तृत सूची उपलब्ध है। उसमें तपः प्रायश्चित्त के विविध प्रकारों की चर्चा करते तदुभय हुए मासलघु, मासगुरु, चातुर्मासलघु, चातुर्मासगुरु से लेकर षट्मासलघु तदुभय प्रायश्चित्त वह है जिसमें अलोचना और प्रतिक्रमण दोनों और षटमासगुरु प्रायश्चित्तों का उल्लेख मिलता है। जैसा कि हमने किये जाते हैं। अपराध या दोष को दोष के रूप में स्वीकार करके पूर्व में सङ्केत किया है मासगुरु या मासलघु आदि इनका क्या तात्पर्य फिर उसे नहीं करने का निश्चय करना ही तदुभय प्रायश्चित्त है। जीतकल्प है, यह इन ग्रन्थों के मूल में कहीं स्पष्ट नहीं किया गया है किन्तु में निम्न प्रकार के अपराधों के लिए तदुभय प्रायश्चित्त का विधान किया इन पर लिखे गये भाष्य-चूर्णि आदि में इनके अर्थ को स्पष्ट करने गया है- (1) भ्रमवश किये गये कार्य, (2) भयवश किये गये कार्य, का प्रयास किया गया है, मात्र यही नहीं लघु की लघु, लघुतर और (3) आतुरतावश किये गये कार्य, (4) सहसा किये गये कार्य, लघुतम तथा गुरु की गुरु, गुरुतर और गुरुतम ऐसी तीन-तीन कोटियाँ (5) परवशता में किये गये कार्य, (6) सभी व्रतों में लगे हुए निर्धारित की गई हैं। अतिचार। कहीं-कहीं गुरुक, लघुक और लघुष्वक ऐसे तीन भेद भी किये गये हैं और फिर इनमें से प्रत्येक के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट ये विवेक तीन-तीन भेद किये गये हैं। व्यवहारसूत्र की भूमिका में अनुयोगकर्ता विवेक शब्द का सामान्य अर्थ यह है कि किसी कर्म के औचित्य मुनि श्री कन्हैयालाल जी 'कमल' ने उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य प्रत्येक एवं अनौचित्य का सम्यक् निर्णय करना और अनुचित कर्म का के भी तीन-तीन विभाग किये हैं। यथा- उत्कृष्ट के उत्कृष्ट-उत्कृष्ट, परित्याग कर देना। मुनि जीवन में आहारादि के ग्राह्य और अग्राह्य उत्कृष्टमध्यम और उत्कृष्टजघन्य ये तीन विभाग हैं। ऐसे ही मध्यम अथवा शुद्ध और अशुद्ध का विचार करना ही विवेक है। यदि अज्ञात और जघन्य के भी तीन-तीन विभाग किये गये हैं। इस प्रकार तप रूप से सदोष आहार आदि ग्रहण कर लिया हो तो उसका त्याग करना प्रायश्चित्तों के 34343=27 भेद हो जाते हैं। उन्होंने विशेष रूप से ही विवेक है। वस्तुत: सदोष क्रियाओं का त्याग ही विवेक है। मुख्य जानने के लिए व्यवहारभाष्य का सङ्केत किया है किन्तु व्यवहारभाष्य रूप से भोजन, वस्त्र, मुनि जीवन के अन्य उपकरण एवं स्थानादि मुझे उपलब्ध न होने के कारण मैं इस चर्चा के प्रसङ्ग में उनके ववहारसुत्तं प्राप्त करने में जो दोष लगते हैं उनकी शुद्धि विवेक प्रायश्चित्त द्वारा के सम्पादकीय का ही उपयोग कर रहा हूँ। उन्होंने इन सम्पूर्ण 27 मानी गयी है। भेदों और उनसे सम्बन्धित तपों का भी उल्लेख नहीं किया है। अत: इस सम्बन्ध में मुझे भी मौन रहना पड़ रहा है। इन प्रायश्चित्तों से सम्बन्धित व्युत्सर्ग मास, दिवस एवं तपों की संख्या का उल्लेख हमें बृहत्कल्पभाष्य गाथा व्युत्सर्ग का तात्पर्य 'परित्याग' या 'विसर्जन' है। सामान्यतया 6041-6044 में मिलता है। उसी आधार पर निम्न विवरण इस प्रायश्चित्त के अन्तर्गत किसी भी सदोष-आचरण के लिए प्रस्तुत हैशारीरिक व्यापारों का निरोध करके मन की एकाग्रतापूर्वक देह के प्रति रहे हुए ममत्व का विसर्जन किया जाता है। जीतकल्प के अनुसार प्रायश्चित्त का नाम तप का स्वरूप एवं काल गमनागमन, विहार, श्रुत-अध्ययन, सदोष स्वप्न, नाव आदि के द्वारा नदी को पार करना, भक्त-पान, शय्या-आसन, मलमूत्र-विसर्जन, काल / यथागुरु छह मास तक निरन्तर पाँच-पाँच उपवास व्यतिक्रम, अर्हत एवं मुनि का अविनय आदि दोषों के लिए व्युत्सर्ग चार मास तक निरन्तर चार-चार उपवास प्रायश्चित्त का विधान किया गया है। जीतकल्प में इस तथ्य का भी एक मास तक निरन्तर तीन-तीन उपावास(तेले) उल्लेख किया गया है कि किस प्रकार के दोष के लिए कितने समय 10 बेले 10 दिन पारणे (एक मास तक या श्वासोच्छवास का कायोत्सर्ग किया जाना चाहिए। प्रायश्चित्त के निरन्तर दो-दो उपवास)। गुरुतर लघु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210774
Book TitleJain Dharm me Prayaschitt evam Dand Vyavastha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf
Publication Year1998
Total Pages5
LanguageHindi
ClassificationArticle & Religion
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy