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स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्वदेवाः । स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्वधातु ।। (ऋग्वेद १/०९/६) भावार्थ-महा कीर्तिवान् इन्द्र विश्ववेत्ता पूषा ता रूप अरिष्टनेमि व बृहस्पति हमारा कल्याण करें। वाजस्य नु प्रसव आ बभूवेमा च विश्वा भुवनानि सर्वतः । स नेमि राजा परियाति विद्वान् प्रजां पुष्टिं वर्धयमानो अस्मे स्वाहा ॥
( यजुर्वेद, अध्याय ६ मन्त्र २५ )
भावार्थ - भावयज्ञ को प्रगट करने वाले ध्यान का इस संसार के सब भूत-जीवों के लिये सर्व प्रकार से यथार्थ रूप कथन करके जो नेमिनाथ अपने को केवलज्ञानादि आत्मचतुष्टय के स्वामी और सर्वतः प्रगट करते हैं और जिनके दयामय उपदेश से जीवों को आत्मस्वरूप की पुष्टि शीघ्र बढ़ती है, उसकी आहुति हो ।
चाहता हूं ।
अर्हन् विष सायकानि धन्वार्हन्निष्कं यजतं विश्वरूपम् । अर्हन्निदं दयसे विश्वमभ्यं न या ओजीयो हद्र त्वदस्ति ॥
भावार्थ हे अर्हन्! आप वस्तु स्वरूप धर्म रूपी वामी को उपदेशरूपी धनुष को तथा आरमचतुष्टय रूप आभूषणों को धारण किये हो । हे अर्हन् ! आप विश्वरूप प्रकाशक केवलज्ञान को प्राप्त हो । हे अर्हन् ! आप इस संसार के सब जीवों की रक्षा करते हो । हे कामादि को जलाने वाले ! आपके समान कोई बलवान् नहीं है ।
इस मन्त्र में अरहन्त की प्रशंसा है, जो जैनियों के पांच परमेष्ठियों में प्रथम हैं। श्री नग्न साधु महावीर भगवान् का नाम नीचे के मन्य में है—
योगवाशिष्ठ अ० १५, श्लोक ८ में श्री रामचन्द्र जी कहते हैं -
(ऋग्वेद मं० २०३३, मंत्र १० )
आतित्यत्वंमप्रतरं महावीरस्य नग्नहूः । रूपमुपसदामेततिलो रात्रोः सुरासुता ॥
नाहं रामो न मे वांछा भावेषु च न मे मनः । शान्तिमास्यातुमिच्छामि स्वात्मन्येव जिनो यथा ॥
भावार्थ – न मैं राम हूं । न मेरी वांछा पदार्थों में है । मैं तो जिन के समान अपनी आत्मा में ही शान्ति स्थापित करना
( यजुर्वेद, अध्याय १६, मन्त्र १४ )
वाल्मीकि रामायण ( बालकांड १४ सर्व लोक १२ ) में महाराज दशरथ द्वारा धमणों को भोजन देने का उल्लेख मिलता है:
"श्रमणाश्चैव भुञ्जते' श्रमणाः दिगम्बराः भूषण टीका
( यहां जैनियों के प्रथम तीर्थंकर का वर्णन है ।)
महाभारत ( वन पर्व अ०
१८३, पृ० ७२७ मुद्रित १९०७ शरवन्द्र सोम) के अनुसार हैहय वंशी काश्यप गोत्री आदि सबने महाव्रतधारी महात्मा अरिष्टनेमि मुनि को प्रणाम किया।
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यहां २२वें तीर्थंकर का संकेत है, जिनका नाम ऊपर वेद के मन्त्रों में भी आया है ।
मार्कण्डेय पुराण (अ० ५३) के अनुसार - ऋषभदेव ने पुत्र भरत को राज्य दे वन में जाकर महा संन्यास ले लिया ।
भागवत के स्कन्ध ५ अ० २ पृ० ३६६-६७ में जैनियों के प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव को महर्षि लिखकर उनके उपदेश की बहुत प्रशंसा लिखी है । भागवत के टीकाकार लाला शालिग्राम जी पृ० ३७२ में लिखते हैं कि शुकदेव जी ने जगत् को मोक्ष मार्ग दिखाया और अपने आप भी मोश होने के कर्म किये, इसीलिये शुकदेव जी ने ऋषभदेव जी को नमस्कार किया है।
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