________________ जैन दृष्टि से साधना मार्ग विचार और वाणी की तरह शरीर से भी कोई ऐसी बात नहीं होने देता कि जिससे किसी का अकल्याण या अहित हो। उसकी प्रत्येक क्रिया अत्यंत सावधानीपूर्वक होती है। उसके द्वारा जो भी काम होते हैं उनसे दूसरों का अनिष्ट तो होता ही नहीं, भलाई ही सधती है। - इस तरह वह अपने आपको सत्प्रवृत्ति में लगाता है, पर उसकी किसी भी शुभ क्रिया में आसक्ति नहीं होती। सहज शुभ प्रवृत्ति रहती है। इन शुभ प्रवृत्तियों को जैन धर्म में 'दश धर्म' कहा जाता है। क्षमादि दश धर्म जिनके साथ अच्छे संबंध हों, उनके साथ अच्छा वर्ताव करने में खास अड़चन नहीं पाती। पर जब कोई कष्ट दे, अपमान करे, या क्रोध के कारण उपस्थित करे तब भी अपनी वृत्तियों को उत्तेजित न होने दे और आत्मभाव रखे, यह क्षमा है। कोई चाहे जितने चिढाने के कारण पैदा करे तो भी अपने को उत्तेजित न होने दे, यह उत्तम क्षमा है। अपने पर हमने कितना काबू पाया है, इसकी कसौटी क्षमा ही है। क्षमा धर्म के पालन में अहंकार बाधक बनता है। संसार के झगड़ों में अधिकांश अहंकार के कारण पैदा होते हैं। अपनी बात के लिए हजारों नहीं पर लाखों के प्राण गए और बड़े बड़े युद्ध हुए। इसलिए साधक बाहरी और भीतरी अहंकार को त्याग कर नम्रता धारण करे, मृदुता का व्यवहार करे। मनुष्य अहंकार करे भी तो किस बात का ? देह संसार की शक्ति के सामने अत्यंत तुच्छ है। शक्ति, बुद्धि, विद्या, धन सभी इतने अल्प और क्षणिक हैं कि कोई भी विवेकी पुरुष उनका अहंकार कर नहीं सकता। यही कारण है कि सच्चे ज्ञानी सदा नम्र होते हैं। किंतु सरलता के अभाव में नम्रता दंभ भी बन सकती है। इसलिए मन, वचन और काया के समी व्यवहारों में एकता लाने के लिए प्रार्जव या सरलता अावश्यक है। जैसे विचार हों वैसे कहे और करे, यह साधना में उपयोगी है। कोई अपने को चाहे जितनी सत्प्रवृत्ति में लगावे पर जबतक सत्प्रवृत्ति में भी प्रासक्ति रहेगी तबतक साधक विकास नहीं कर सकता। सत्प्रवृत्तियां भी अनासक्ति के अभाव में बोझरूप या बंधन का कारण बन जाती हैं। इसलिए ज्ञानियों ने कहा है अच्छे काम करो और उन्हें भूल जाअो। साधक अनासक्त, फलाशारहित और निर्लेप वृत्तिवाला बने, इसेही शौच कहा गया है। ___ साधना में तबतक प्रगति नहीं हो सकती जबतक साधना का हेतु स्पष्ट नहीं। साधना के पीछे दृष्टि तो सत्य की खोज है। सत्य बोलने से भी वह अधिक व्यापक है। सत्य में सच बोलना तो विदित है ही पर बोलने में भी वह सत्य, हितकर और इष्ट हो। जब कभी एक का सत्य दूसरे से भिन्न प्रतीत होता हो तो सोचना चाहिए कि यह भेद क्यों है। दूसरे का दृष्टिकोण समझने का प्रयत्न करना चाहिए। समग्र दृष्टिकोण से यदि विचार न किया जाय तो हमारे समझे हुए सत्य के अपूर्ण रहने की संभावना रहती है, इसलिए सत्य का खोजी प्रयत्नशील और उदार होगा। उसमें धीरज होगी। वह शीघ्रता में न तो निर्णय करेगा और न अपना निर्णय दूसरे पर लादने का प्रयत्न ही करेगा। सत्य दूसरों की आजादी में दखल नहीं देता। भिन्न भिन्न विचारधाराओं के बावजूद भी दूसरों के प्रति आत्मीयता और प्रेमभाव रह सकता है। साधक अपने विचारों के प्रति दृढता रखकर भी दूसरों के प्रति उदारता रख सकता है। पर इस तरह के सत्य का पालन बिना संयम के असंभव है। इसीलिए साधक के लिए संयम आवश्यक माना गया है। अपने किसी भी प्रकार के आचरण से दूसरों को कष्ट न पहुंचे। इंद्रियों और मन के अधीन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org