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६. सिद्धालय - मुक्त आत्मायें सिद्ध कहलाती है, क्योंकि उन्होंने कर्मबंधन से सर्वथा मुक्त होकर परमपुरुषार्थ मोक्ष सिद्ध कर लिया है और इसको सिद्ध करने के अनन्तर यह क्षेत्र उनका आलय (वासस्थान) बनता है। इसीलिये इसका नाम सिद्धालय है।
७. मुक्ति जिन आत्माओं ने कर्मबंधन से सर्वथा मुक्ति प्राप्त करली है, उन आत्माओं का ही इस क्षेत्र में आगमन होता है, इसलिये यह क्षेत्र भी मुक्ति कहलाता है।
८. मुक्तालय - मुक्त आत्माओं का आलय होने से यह क्षेत्र मुक्तालय कहलाता है।
९. लोकाप्र - लोक के अग्र भाग में स्थित होने से यह क्षेत्र भी लोकाग्र कहलाता है। यह क्षेत्र लोक की स्तूपिका (शिखर) के समान होने इसका
१०. लोकाग्रस्तूपिका लोकाग्रस्तूपिता यह सार्थक नाम है।
नाम है।
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११. लोकाप्रप्रतिवाहिनी - लोक के अग्रभाग के द्वारा वाहित किये जाने से यह भी मुक्तिक्षेत्र का
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१२. सर्वजीव - प्राण- भूत जीव सत्वसुखावहा चतुर्गति के जीव कर्मक्षय करके इस क्षेत्र को प्राप्त करते हैं, और वे वहाँ शाश्वत सुख की प्राप्ति करते हैं ।
इस प्रकार से मुक्ति क्षेत्र का संक्षिप्त संकेत करने के बाद अब मोक्ष मार्ग (मुक्ति प्राप्त करने के साधनों) का विचार करते हैं। जिनका अवलंबन लेकर आत्मा अपने लक्ष्य (मोक्ष) को प्राप्त करती है । मुक्ति मार्ग जिस प्रकार चिकित्सा के क्षेत्र में रोग, रोग हेतु, आरोग्य और औषधि, इस चार बातों का जानना आवश्यक है, उसी प्रकार आध्यात्मिक विकास की साधना पद्धति में भी १. संसार २. संसारहेतु ३. मोक्ष और ४. मोक्षोपाय, इन चार का ज्ञान होना अवश्य है।
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संक्षेप में संसार और संसार के कारकों का पूर्व में उल्लेख किया जा चुका है । प्रकृत में उनका पुनः उल्लेख करना उपयोगी नहीं है। अतः मुक्ति के साधनों का कुछ विस्तार से वर्णन करते हैं।
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कर्मक्षय होने पर मुक्ति प्राप्त होती है और कर्मक्षय के साधन के रूप में संवर और निर्जरा का उल्लेख पूर्व में किया जा चुका है। परन्तु वे कब कार्यकारी होते हैं? उनके मुख्य कारणों को यहाँ मुक्तिमार्ग के रूप में समझना चाहिये ।
जैन शास्त्रों में मुक्तिमार्ग का विचार दो विवक्षाओं से किया है -१. निश्चय २. व्यवहार । निश्चित से मुक्ति मार्ग एक है - क्षायिक भाव ज्ञानदर्शन आदि शुद्ध आत्मिक भावों की प्राप्ति । व्यवहार विवक्षा से सम्यग्दर्शन ज्ञान - चारित्र की समवेत साधना ही मुक्ति प्राप्ति का एक मात्र मार्ग, उपाय है। इसी बात को स्पष्ट करने के लिये आचार्य उमास्वाति ने कहा है सम्यग्दर्शनज्ञान चरित्राणि मोक्षमार्गः । इनके साथ तप का भी साधन के रूप में निर्देश किया है। जो सम्यक्चारित्र का ही एक अंग है। अतः इसका पृथक निर्देश नहीं किया है।
दर्शन - ज्ञान - चारित्र के साथ सम्यक् विशेषण का साभिप्रायः प्रयोग किया है। यह जैनदर्शन को विशेषता का द्योतक है। मुक्ति का मार्ग केवल दर्शन, ज्ञान, चारित्र सामान्य नहीं, अपितु इनको सम्यक् होना
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