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________________ लोकाग्रभाग तक मुक्त जीव की गति होने का कारण वहीं तक धर्मास्तिकाय का सद्भाव पाया जाता है, जो जीव और पुद्गलों की गति में सहकारी द्रव्य है। कोई अवरोधक कारण नहीं होने से अविग्रह गति होती है और ऊर्ध्वगमन करना आत्मा का स्वभाव है। जो निम्नांकित चार कारणों और उनके उदाहरणों से समझ में आ जाता है - १. पूर्वप्रयोग - कुंभकार द्वारा दंड हटा लेने पर भी घुमाया गया चक्र घूमता रहता है। वैसे ही बद्ध कर्मों से मुक्त होने पर उत्पन्न वेग के कारण मुक्तात्मा ऊर्ध्व गति करती है। २. संग का अभाव - मिट्टी से लपेटी तूंबड़ी पानी में डाली जाने पर धीरे धीरे लेप के हटते जाने के बाद पानी की सतह पर आ जाती है, वैसे ही कर्म लेप से मुक्त आत्मा भी लोक के ऊर्ध्वतम भाग में स्थित होती है। ३. बंध छेद - एरंड बीज कोष से मुक्त होने पर छिटक कर ऊपर उछलता है, वैसे ही कर्मबंधन का उच्छेद होने पर आत्मा ऊर्ध्व गति करती है। ४. गतिपरिणाम - आत्मा स्वभावतः ऊर्ध्वगति करने वाली है। अतः निर्वांत अग्नि की लो के ऊपर की ओर उठने की तरह मूक्तात्मा ऊर्ध्वगति करती है। इस प्रकार मुक्तात्मा के लोकाग्रपर्यन्त अविग्रह ऊर्ध्वगति करने के कारणों को जानना चाहिये। मुक्तात्मा का परिचय - जो स्थूल मूर्त रूपी है, उसका परिचय तो किसी आकार-प्रकार द्वारा दिया भी जा सकता है। किन्तु मुक्तात्मा की तो ऐसी स्थिति नहीं है, वह अमूर्त अरूपी है। इसलिये उसका वाणी, तर्क, बुद्धि, उपमा आदि के द्वारा भी परिचय दिया जाना संभव नहीं है। निषेधपरक शब्दों द्वारा कुछ परिचय दिया जा सकता है। जैसे वह न तो ह्रस्व है, न दीर्घ उसका न कोई वर्ण, गंध, रस, स्पर्श है। न वह स्त्री, पुरुष-नपुसंक है आदि। वैदिक परंपरा में मुक्तात्मा के परिचय के लिये नेति-नेति शब्द प्रयुक्त हुआ है। मुक्तात्मा की अवगाहन - मोक्षगामी आत्मा के वर्तमान भव में जितनी ऊंचाई वाले समस्त शरीर में आत्मप्रदेश व्याप्त रहते हैं उस ऊँचाई में से तृतीय भागन्यून करने पर जितनी ऊँचाई रहे, उतनी ऊँचाई में मुक्तात्मा के आत्मप्रदेश मुक्ति क्षेत्र में व्याप्त रहते हैं। शास्त्रों में मोक्षगामी आत्मा के वर्तमान शरीर की उत्कृष्ट ऊँचाई पाँच सो धनुष, मध्यम ऊँचाई सात हाथ और जघन्य दो हाथ प्रमाण बताई गई है। इनमें से तृतीयांश कम करके शेष उत्कृष्ट मध्यम, जघन्य अवगाहना जानना चाहिये और उस अवगाहना से वह अनन्त काल तक वहाँ अवस्थित रहती है। मुक्त जीवों की तरह संसारी जीव भी अनन्त हैं - कतिपय तर्क करते हैं कि अगाध जल से भरा कुआ भी पानी निकालते निकालते खाली हो जाता है, वैसे ही मुक्ति क्षेत्र में अनन्तकाल से अनन्त आत्मायें अब स्थित हैं, हो रही हैं और होंगी, तब वह समय भी आ सकता है, जब संसार खाली हो जाये, एक भी जीव संसार में न रहे। उस तर्क का समाधान यह है - काल अनन्त है। अतीत, वर्तमान और अनागत के रूप में उसके भेद मान लेने पर भी काल की अनन्तता में कोई अन्तर नहीं आता है। इसी प्रकार आत्मायें भी अनन्त हैं। जब अनन्त अतीत में भी यह (१६२) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210720
Book TitleJain Darshan Sammat Mukta Mukti Swarup Sadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherZ_Mahasati_Dway_Smruti_Granth_012025.pdf
Publication Year1992
Total Pages10
LanguageHindi
ClassificationArticle & Nine Tattvas
File Size863 KB
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