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________________ की सत्ता पृथक्-पृथक् है। दोनों का स्वभाव एक दूसरे गुण और पर्याय वाला द्रव्य है। उत्पाद एवं व्यय के स्थान से भिन्न है। पर 'पर्याय' शब्द प्रयुक्त है और ध्रौव्य के स्थान पर 'गुण' ज्ञाता का वह अभिप्राय विशेष 'नय' है जो शब्द का प्रयोग हुआ है। उत्पाद तथा व्यय परिवर्तन के प्रमाण के द्वारा जानी हुई वस्तु के एक अंश-विरोष को सूचक हैं, ध्रौव्य नित्यता की संसचना देता है। गुण ग्रहण करता है। प्रमाण में अंश का विभाजन नहीं हो नित्यता का सूचक है और पर्याय परिवर्तन का वाचक सकता। वह तो पदार्थ को समग्र भाव से ही ग्रहण करता है। प्रत्येक पदार्थ के दो रूप होते हैं-एकता और है। जैसे-यह घड़ा है। घट अनन्त धर्मात्मक है। वह अनेकता। सदृशता और विसदृशता, नित्यता और अनिरूप, रस, गन्ध और स्पर्श आदि अनेक गुण-धर्मों से संयुक्त त्यता, स्थायित्व और परिवर्तन, इन दोनों में से प्रथम पक्ष है । उन गुणों का वर्गीकरण न करके सम्पूर्ण रूप से जानना ध्रौव्य का वाचक है, गुण का सूचक है। द्वितीय पक्ष 'प्रमाण' है और उन गुणों का विभाजन करके जानना उत्पाद और व्यय का प्रतीक है, पर्याय सचक है । पदार्थ 'नय' है। प्रमाण और नय ये दोनों ज्ञान की ही प्रवृ- के स्थायित्व में स्थिरता रहती है, एकरूपता होती है। त्तियाँ हैं। जब ज्ञाता की दृष्टि पूर्ण रूप से ग्रहण करने परिवर्तन में पूर्व रूप का क्षय होता है और उत्तर रूप की की होती है तब उसका ज्ञान प्रमाण' होता है। जब उत्पत्ति होती है। पदार्थ के उत्पाद एवं विनाश में व्यय उसका उसी प्रमाण से ग्रहण की हुई पदार्थ को खण्ड-खण्ड और उत्पत्ति के रहते हुए पदार्थ सर्वथा रूप से विनष्ट रूप से ग्रहण करने का अभिप्राय होता है तब उस अंश- नहीं होता, न सर्वथा नवीन ही उत्पन्न होता है। उत्पाद ग्राही अभिप्राय को 'नय' कहा जाता है। इस प्रकार एवं विनाश के मध्य एक प्रकार की स्थिरता रहती है, यह स्पष्ट है कि प्रमाण और नय ये दोनों ज्ञान के ही जो न विनष्ट होता है और न उसकी उत्पत्ति ही पर्याय हैं। होती है। प्रमाण को सकलादेश कहा है और नय को विकला जैन साहित्य का परिशीलन-अनुशीलन करने से विदित देश कहा गया है। सकलादेश में पदार्थ के समस्त धर्मों होता है कि 'द्रव्य' शब्द का प्रयोग सामान्य के लिये भी की विवक्षा होती है। किन्तु विकला देश में एक धर्म के हुआ है। सामान्य एवं जाति को प्रगट करने के लिये अतिरिक्त अन्य धर्मों की विवेचना नहीं होती है। द्रव्य और व्यक्ति या विरोष को प्रगट करने के लिये सारपूर्ण शब्दों में यह कथन भी यथार्थता को लिये 'पर्याय' शब्द का प्रयोग किया जाता है। सामान्य या हुए है कि नयवाद जैन दर्शन का एक प्राणभूत तत्त्व है द्रव्य दो प्रकार का है। तिर्यक् सामान्य और ऊर्ध्वता और दाशे निक-विचारणाओं के समन्वय का आधार- सामान्य। एक ही काल में अवस्थित अनेक देश में रहने स्तम्भ है। वाले, अनेक पदार्थों में जो सदृशता की अनुभूति होती है जैन दर्शन में द्रव्य, सत. पदार्थ, तत्त्व. तत्त्वार्थ उसे 'तियेक् सामान्य' कहते हैं। जब कालकृत भिन्नआदि शब्दों का प्रयोग प्रायः एक ही अर्थ में हुआ है। भिन्न अवस्थाओं में किसी द्रव्य का अन्वय अथवा एकत्व तत्त्व सामान्य के लिए इन सभी शब्दों का प्रयोग हआ है। विवक्षित हो, एक विशेष वस्तु की अनेक अवस्थाओं की जैन दर्शन तत्व और सत इन दोनों को एकार्थक मानता है। एक-एकता अथवा धोव्य अपेक्षित हो, तब उस धाव्य द्रव्य और सत् में भी एकान्ततः कोई भेद नहीं है। सत्ता सूचक अंश को ऊध्र्वता-सामान्य कहा जाता है। सामान्य की अपेक्षा से सभी सत् हैं। जो सन है वही अन्य जिस प्रकार सामान्य का वर्गीकरण दो प्रकार से हुआ रूप से असत् है। इसी मोलिक दृष्टि को संलक्ष्य में रख है उसी प्रकार विशेष के दो प्रकार हैं-तियक सामान्य कर कहा गया है कि सब एक हैं, क्योंकि सभी सत् हैं। के साथ रहने वाले जो विशेष विवक्षित हो, वह तिर्यक सत् का स्वरूप क्या है? इस प्रश्न के समाधान में विशेष कहलाता है और ऊर्वता सामान्याश्रित जो पर्याय कहा गया है कि सत् उत्पाद, व्यय और धोव्यात्मक है। हो, उसे ऊर्वता विशेष कहते हैं। द्रव्य के ऊर्ध्वता ३२ ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210669
Book TitleJain Darshan ke Aalok me Nayavad aur Dravyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni
PublisherZ_Bhanvarlal_Nahta_Abhinandan_Granth_012041.pdf
Publication Year1986
Total Pages7
LanguageHindi
ClassificationArticle & Naya
File Size743 KB
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