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________________ भावादि । इसे द्रव्य स्वातन्त्र्य भी कहते हैं जो केवल जिनागम में ही उपलब्ध है, अन्यत्र नहीं। 11. योग और मोह रूपी अध्यवसाय (input functions) विचरण से गुण स्थानों (control stations) सम्बन्धी परिणाम (output functions)। इनका चित्रण सिस्टम सिद्धान्त का एक अंग है। 6. स्पर्श गुण के अविभागी प्रतिच्छेदों (ऊर्जा स्तरों) के निश्चित आधार पर पुद्गल परमाणुओं का बन्ध । 7. समयों के बीतने की अतीत-अनागत दिशा अथवा क्रमबद्ध पर्यायों से सह सम्बन्ध । यह Causality का सिद्धान्त है जिसका उपयोग सिस्टम सिद्धान्त में हुआ है ।। 12. आस्रव (input values) तथा उदयादि निर्जरा (output values) युक्ति से सत्त्व (State) का ज्ञान । इसका चित्रण सिस्टम सिद्धान्त का दूसरा अंग है। 13. कर्म सिद्धान्त में मिस्टम सिद्धान्त की अपेक्षा बन्धादि तत्त्वों का समावेश । इस प्रकार कर्म सिद्धान्त एकसूत्री संगत सिद्धान्त से सिस्टम सिद्धान्त में अनेक सुझाव तथा उन्नयन हेतु नवीन पथ का अनुसरण ।32 8. उपादान शक्तियों के सिवाय पुद्गल का अन्य द्रव्यों से उदासीन अनुग्रह (सहकारिता) से गमन, परिणमन, अवगाहन तथा स्थिरता होना। 9. पुद्गल में वर्ण, रस, गंध, स्पर्श विशेष गुणों के सिवाय सामान्य गुणों (प्रमेयत्व, अगुरुलघुत्व, अनन्त गुणी हा निवृद्धि, आदि) का होना । 14. ज्योतिष सिद्धान्त में एकसूत्री सिद्धान्त (जो तिलोय पण्णत्ती प्रभूति ग्रन्थों में उपलब्ध है) द्वारा गणितीय गमनशीलता के नवीन नियमों की व्युत्पत्ति । कुन्तल-दीर्घवृत्तीय ज्योतिष बिम्बगमन द्वारा पंचांग सम्बन्धी समस्त जानकारी का आनयन 133 10. केवल जीव तथा पुद्गल में क्रियावती एवं भाव वती शक्ति का अस्तित्व । (द्रव्यों के देशान्तर प्राप्ति हेतु प्रदेशों के हलन-चलनरूप परिरपन्द को किया कहते हैं। उनमें होनेवाले अविरल प्रवाह रूप परिणमन को भाव कहते हैं ।) 15. आधुनिकतम बीजगणितीय एवं ज्यामितीय ज्ञान के उपयोग से कर्म सिद्धान्त की यथार्थ गहराइयों में पहुँच की पूर्ण संभावना । 30. देखिये, वही। 31. देखिये, Jain L. C., The Jaina Theory of Ultimate Particles, paper read at the univerity of Indore on 8-4-1976. 32. देखिये, 291 33. देखिये 1 (ख, ।। rer at afgå. Jain L. C.. On Spiro elliptic orbit of the Sun in Tiloyapanna paper read at the Univerity of Saugar. 34. इस विषय पर विस्तृत लेख System Theory in Jaina School of Mathematics प्रायः समाप्ति पर है। २८६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210632
Book TitleJain Ganit Vigyan ki Shodh Dishaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherZ_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf
Publication Year
Total Pages10
LanguageHindi
ClassificationArticle & Mathematics
File Size836 KB
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