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३ / धर्म और सिद्धान्त १६९
उत्तरपक्ष जानता है। अतः उसके द्वारा उत्तरमें इसका निर्देश किया जाना भी अनावश्यक है।
यद्यपि इस विषयमें भी दोनों पक्षोंके मध्य यह विवाद है कि जहाँ उत्तरपक्ष उस उपचारको सर्वथा अभूतार्थ मानता है वहाँ पूर्वपक्ष उसे कथंचित् अभूतार्थ और कथंचित् भूतार्थ मानता है । इसपर भी यथावश्यक आगे विचार किया जायगा।
यतः प्रसंगवश प्रकृत विषयको लेकर दोनों पक्षोंके मध्य विद्यमान मतैक्य और मतभेदका स्पष्टीकरण किया जाना तत्त्वजिज्ञासुओंकी सुविधाके लिए आवश्यक है अतः यहाँ उनके मतैक्य और मतभेदका स्पष्टीकरण किया जाता है। मतैक्यके विषय . १. दोनों ही पक्ष संसारी आत्माके विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमणमें द्रव्यकर्मके उदयको निमित्तकारण और संसारी आत्माको उपादानकारण मानते हैं ।
२. दोनों ही पक्ष मानते हैं कि उक्त विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमण उपादानकारणभत संसारी आत्माका ही होता है । निमित्तिकारणभूत उदयपर्याय विशिष्ट द्रव्यकर्मका नहीं होता।
३. दोनों ही पक्षोंकी मान्यतामें उक्त कार्यका उपादानकारणभूत संसारी आत्मा यथार्थ कारण और मुख्य कर्ता है व निमित्तिकारणभूत उदयपर्याय विशिष्ट द्रव्यकर्म अयथार्थ कारण और उपचरित कर्ता है।
४. दोनों ही पक्षोंका कहना है कि उक्त कार्यके प्रति उपादानकारणभूत संसारी आत्मामें स्वीकृत उपादानकारणता, यथार्थकारणता और मुख्यकर्तृत्व निश्चयनयके विषय हैं और निमित्तकारणभूत उदयपर्याय विशिष्ट द्रव्यकर्ममें स्वीकृत निमित्तकारणता, अयथार्थकारणता और उपचरितकर्तृत्व व्यवहारनयके विषय है। मतभेदके विषय
१. यद्यपि दोनों ही पक्ष प्रकृति कार्यके प्रति उपादानकारणरूपसे स्वीकृत संसारी आत्माको उस कार्यरूप परिणत होनेके आधारपर कार्यकारी मानते हैं, परन्तु जहाँ उत्तरपक्ष उसी कार्यके प्रति निमित्त कारणरूपसे स्वीकृत उदयपर्यायविशिष्ट द्रव्यकर्मको उस कार्यरूप परिणत न होने और उपादानकारणभूत संसारी आत्माकी उस कार्यरूप परिणतिमें सहायक भी न होनेके आधारपर सर्वथा अकिंचित्कर मानता है वहाँ पूर्वपक्ष उसे वहाँपर उस कार्यरूप परिणत न होनेके आधारपर अकिंचित्कर और उपादानकारणभूत संसारी आत्माको उस कार्यरूप परिणतिमें सहायक होनेके आधारपर कार्यकारी मानता है।
२. यद्यपि दोनों ही पक्ष प्रकृत कार्यके प्रति उपादान कारणरूपसे स्वीकृत संसारी आत्माको उस कार्यरूप परिणत होनेके आधारपर यथार्थकारण और मुख्य कर्ता मानते हैं, परन्तु जहाँ उत्तरपक्ष उसी कार्य के प्रति निमित्तकारणरूपसे स्वीकृत उदयपर्यायविशिष्ट द्रव्यकर्मको उस कार्यरूप परिणत न होने और उपादानकारणभूत संसारी आत्माकी उस कार्यरूप परिणतिमें सहायक भी न होनेके आधारपर अयथार्थकारण और उपचरितकर्ता मानता है वहाँ पूर्वपक्ष उसे वहाँपर उस कार्य रूप परिणत न होनेके साथ उपादानकारणभत संसारी आत्माकी उस कार्यरूप परिणतिमें सहायक होनेके आधारपर अयथार्थ कारण और उपचरितकर्ता मानता है।
३. यद्यपि दोनों ही पक्ष प्रकृत कार्य के प्रति उपादानकारण, यथार्थकारण और मुख्यकर्ता रूपसे स्वीकृत संसारी आत्माको उस कार्यरूप परिणत होनेके आधारपर भूतार्थ मानते हैं, परन्तु जहाँ उत्तर पक्ष उसी कार्यके प्रति निमित्तकारण, अयथार्थकारण और उपचरित कर्ता रूपसे स्वीकृत उदयपर्याय विशिष्ट
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