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एक प्रश्न होता है कि वह तैजस शरीर किसके द्वारा संचालित है ? वह प्राणधारा को प्रवाहित अपने आप कर रहा है या किसी के द्वारा प्रेरित होकर कर रहा है ? यदि अपने आप कर रहा है तो तेजस शरीर जैसा मनुष्य में है वैसा पशु में भी है, पक्षियों में भी है और छोटे-से-छोटे प्राणी में भी है। एक भी प्राणी ऐसा नहीं है, जिसमें तैजस-शरीर, सूक्ष्म शरीर न हो । वनस्पति में भी तैजस शरीर है, प्राण-विद्युत् है । वनस्पति में भी ओरा होता है । आभामण्डल होता है । वह आभामण्डल इस स्थूल शरीर से निष्पन्न नहीं है। आभामण्डल (ओरा) उस सूक्ष्म शरीर-तैजस शरीर का विकिरण है। वनस्पति का
पना आभामण्डल होता है। हर प्राणी का अपना आभामण्डल होता है। मनुष्य का भी अपना आभामण्डल होता है। प्रश्न होता है यह रश्मियों का विकिरण क्यों होता है ? यदि तैजस शरीर का कार्य केवल विकिरण करना ही हो तो मनुष्य के साथ यह क्यों, कि वह इतना ज्ञानी, इतना शक्तिशाली और इतना विकसित तथा एक अन्य प्राणी इतना अविकसित क्यों ? यह सब तेजस शरीर का कार्य नहीं है । तैजस शरीर के पीछे भी एक प्रेरणा है-सूक्ष्म शरीर की। वह सूक्ष्म शरीर है कर्म शरीर । जिस प्रकार के हमारे अर्जित कर्म और संस्कार होते हैं, उनका जैसा स्पंदन होता है, उन स्पंदनों से स्पंदित होकर तैजस शरीर अपना विकिरण करता है । तैजस शरीर जिस प्रकार की प्राणधारा प्रवाहित करता है, वैसी प्रवृत्ति स्थूल शरीर में हो जाती है।
तीन. शरीरों की एक श्रृंखला है-- स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर और सूक्ष्मतर शरीर । स्थूल शरीर यह दृश्य शरीर है । सूक्ष्म शरीर है तैजस शरीर और सूक्ष्मतर है कर्म शरीर, कार्मण शरीर । कुछ लोगों ने इसका विस्तार कर सात शरीर भी माने हैं। विस्तार और भी हो सकता है। किन्तु इन तीन शरीरों की एक व्यवस्थित शृंखला है-स्थूल, सूक्ष्म और सूक्ष्मतर । इन तीनों शरीरों के माध्यम से सारी प्रवृत्तियों का संचालन होता है। प्राणी की मुलभूत उपलब्धियाँ तीन हैं-चेतना (ज्ञान), शक्ति और आनन्द । चेतना का तारतम्य-अविकास और विकास, शक्ति का तारतम्य-अविकास और विकास, आनन्द का तारतम्यअविकास और विकास । यह सारा इन शरीरों के माध्यम से होता है। कर्म शरीर में अभिव्यक्ति के जितने स्पंदन होते हैं उतने ही स्पंदन संक्रान्त होते हैं तैजस शरीर में और वे स्पंदन फिर संक्रान्त होते हैं स्थूल में । यहाँ वे पूरे प्रकट होते हैं।
तीनों शरीरों का सामंजस्य है । तीनों एकसूत्रता में जुड़े हुए हैं और अपना-अपना कार्य संपादित कर रहे हैं।
कुण्डलिनी-जागरण का प्रश्न शरीरों के साथ जुड़ा हुआ है। तीन शरीरों में जो मध्य का शरीर है, तैजस शरीर (सूक्ष्म शरीर), उसकी एक क्रिया का नाम है "तेजोलब्धि" । हठयोग तन्त्र में इसे — कुण्डलिनी" कहा गया है। कहीं-कहीं इसे "चित् शक्तिः" कहा जाता है । जैन-साधना पद्धति में इसे 'तेजोलब्धि' कहा जाता है । नाम का अन्तर है। कुण्डलिनी के अनेक नाम हैं। हठयोग में इसके पर्यायवाची नाम तीस गिनाये गये हैं। उनमें एक नाम है “महापथ" । जैन साहित्य में “महापथ" का प्रयोग मिलता है। कुण्डलिनी के अनेक नाम हैं। भिन्न-भिन्न साधना-पद्धतियों में यह भिन्न-भिन्न नाम से पहचानी गयी है। यदि इसके स्वरूप वर्णन में की गयी अतिशयोक्तियों को हटाकर इसका वैज्ञानिक विश्लेषण किया जाए तो इतना ही फलित निकलेगा कि यह हमारी विशिष्ट प्राणशक्ति है। प्राणशक्तिविशेष का विकास ही कुण्डलिनी का जागरण है। प्राणशक्ति के अतिरिक्त, तैजस शरीर के
कुण्डलिनीयोग : एक विश्लेषण : युवाचार्य महाप्रज्ञ | ३०३
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