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कर्माशय एवं उनका भोग / २४१
भोग प्रारम्भ हो चका है वे प्रारब्ध कर्म कहलाते हैं। दष्ट जन्मवेदनीय कर्म इसी श्रेणी में आते हैं। इस जन्म में किये गये वे कर्म जिनका भोग (विपाक) इसी जन्म में होना है किन्तु अभी भोग प्रारम्भ नहीं हुआ है, उन्हें प्रारब्ध तो नहीं कहा जा सकता किन्तु फिर भी वे दष्ट जन्मवेदनीय कर्म कहे जायेंगे। पूर्वजन्मों में किये गये वे कर्म जिनकी समष्टि द्वारा वर्तमान जन्म प्राप्त हुआ है, और वे इसके जन्म प्रायुष और भोग के हेतु हैं, वे कर्म समष्टि रूप से (व्यक्ति रूप से नहीं) प्रारब्ध कर्मों की कोटि में रखे जायेंगे।
जिन कर्मों का भोग अभी प्रारम्भ नहीं हया है, वे सभी चाहे इस जन्म में किये गये हों चाहे जन्मान्तर में, संचित कर्म कहे जाते हैं। इसी प्रकार जो कर्म अभी किये जा रहे हैं, तथा उनका भोग इस जन्म में निश्चित नहीं है, ऐसे सभी कर्म क्रियमाण कर्म कहाते हैं।
संचित कर्मों के संस्कारों को अनियत विपाक-अदष्ट जन्मवेदनीय कर्माशय के समानान्तर तथा प्रारब्ध कर्मों के संस्कारों को प्रधान अर्थात् नियत विपाक दृष्ट जन्मवेदनीय कर्माशय के समानान्तर रखा जा सकता है। यद्यपि भाष्यकार व्यास ने क्रियमाण कर्मों से उत्पन्न संस्कारों की कोई चर्चा नहीं की है, किन्तु फिर भी इस प्रकार के संस्कारों को दृष्ट जन्मवेदनीय अथवा अदष्ट जन्मवेदनीय कर्मों में यथावसर रखा जा सकता है।
इन कर्माशयों से जिस जाति (जन्म) प्रायः और भोग की उत्पत्ति होती है, उनके द्वारा जीव को क्लेश का ही अनुभव होता है, दु:ख का ही अनुभव होता है। सर्वसामान्य जहां कहीं सुख का भान करता है वहाँ वह सुख का भान भ्रममूलक होता है। योगिजन वहाँ सुखाभास का भी अनुभव नहीं करते क्योंकि उन्हें विदित है कि विषयों का उपभोग करने से उनके प्रति राग की वृद्धि होती है, राग से कामना बढ़ती है, और पुनः अप्राप्ति से दुःख होता है, भोग से तृप्ति हो जाती हो ऐसा तो होता है नहीं, अतः कोशय के फलस्वरूप प्राप्त भोग दुःख का ही कारण है, यही स्वीकार किया जाता है।' इसीलिए सूत्रकार पतञ्जलि ने समस्त दष्ट और अदृष्ट जन्मवेदनीय कर्माशय को क्लेशमूलक ही स्वीकार किया है। चाहे उसका विपाक (फल) जन्म हो चाहे आयु और चाहे भोग ।'
कर्माशय के रूप में चित्त में अनादिकाल से असंख्यात कर्मसंस्कार चले पा रहे हैं। इनमें कुछ प्रधान और कुछ उपसर्जन कर्माशय कहे जा सकते हैं। जिन कर्मवासनाओं के संस्कार प्रबल रूप से उत्पन्न होते हैं उन्हें प्रधान कर्माशय कहते हैं, और जिनके संस्कार शिथिल रूप से पड़े रहते हैं, उन्हें उपसर्जन कर्माशय कहते हैं। मरणकाल में प्रधान कर्माशय पूरे वेग से जागृत हो जाते हैं, साथ ही पूर्व और वर्तमान जन्म के अनुकूल वासनाओं को उद्धृत करते हैं। १. (क) भोगाभ्यासमनु विवर्द्धन्ते रागाः, कौशलानि चेन्द्रियाणामिति तस्मादनुपायः सुखस्य
भोगाभ्यास: ।-योगभाष्य २.१५ (ख) विषयाणामुपभ्युज्यमानानां यथायथं ग भिवृद्धस्तदप्राप्तिकृतस्य दुःखस्यापरिहार्यतया
दुखान्तरसाधनत्वाच्चास्त्येव दुःखरूपता ।-भोजवृत्तिः २.१५ २. क्लेशमुलकर्माशयो दष्टादष्टजन्मवेदनीयः । सति मुले तद्विपाको जात्याय गाः।। परिणामतापसंस्कारदुःखै गुणवृत्तिविरोधाच्च दुःखमेव सर्वविवेकिनः ॥
-यो०सू० २.१२,१३,१५ ३. ततस्तविपाकानुगुणानामेवाभिव्यक्तिर्वासनानाम् । यो. सू. ४.८
धम्मो दीवो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है
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