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कर्माशय एवं उनका भोग | २३९
इन कर्माशयों के फल की अनिवार्यता के सम्बन्ध में भले ही विवाद हो सकता है कि इनका फल प्रत्येक कर्ता को अवश्य भोगना पड़ता है, अथवा भोग के बिना भी उनका क्षय हो सकता है । इस प्रश्न पर योग-भाष्यकार व्यास की मान्यता है कि कर्माशय तब तक ही फलदायी होते हैं, जब तक अविद्या प्रादि क्लेश विद्यमान रहते हैं। इनका विनाश हो जाने पर ये अंकुरण में उसी प्रकार असफल हो जाते हैं जिस प्रकार शालिबीज आवरण ( भूसी) के अलग हो जाने पर अंकुरण में समर्थ नहीं होते । इसी प्रकार विवेकख्याति द्वारा यदि क्लेश भी दग्धबीजभाव को प्राप्त हो जाये तो शेष कर्माशय भी दग्धबीजभाव को प्राप्त हो जाते हैं, और उनका कोई फल नहीं होता। सूत्रकार ने स्वयं विवेकख्याति को क्लेश और उनके परिणामों के विनाश का सफल उपाय स्वीकार किया है।'
आइये, अब हम कर्माशयों के फलों पर क्रमशः विचार करें। कर्माशय का प्रथम फल जाति अर्थात् जन्म स्वीकार किया गया है। यहाँ एक प्रश्न सहज रूप से उपस्थित होता है, कि क्या एक कर्म का संस्कार एक जन्म का हेतु है, अथवा वह अनेक जन्मों का भी हेतु हो सकता है ? इसी प्रकार दूसरा प्रश्न यह है कि क्या अनेक कर्म मिलकर एक जन्म के हेतु होते हैं, अथवा वे ( अनेक कर्म ) अनेक जन्मों के भी हेतु हो सकते हैं ? इन चार पक्षों में प्रथम पक्ष अर्थात् 'एक कर्म एक जन्म का हेतु होता है' यह स्वीकार करना उचित नहीं हो सकता । क्योंकि प्रथम तो एक जन्म में अनेक प्रकार के सुख दु:ख आदि का अनुभव होता है, जो एक कर्म से उत्पन्न कर्माशय का फल नहीं होना चाहिए। इसके अतिरिक्त एक कर्म के परिणाम में एक जन्म मानने पर अनादिकाल से चली आ रही जन्मपरम्परा में से प्रत्येक जन्म में किये गये संख्यातीत कर्मों के अनन्त होने के कारण असंख्य कर्मों के फलयोग का अवसर ही न पा सकेगा । इसी प्रकार एक कर्म को अनेक जन्मों का हेतु भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि उस स्थिति में पूर्वोक्त दोष
और भी प्रबल रूप से उपस्थित होंगे। इसके अतिरिक्त इस स्थिति में कर्मों के भोग का क्रम भी न बन पाएगा क्योंकि अनेक जन्म तो एक साथ हो नहीं सकते । इसी भाँति अनेक कर्मों को भी अनेक जन्मों का हेतु मानना भी उचित न बन पायेगा, क्योंकि इस स्थिति में भी क्रमविषयक अव्यवस्था उत्पन्न होगी, तथा अनेक जन्मों में किये गये कर्मों के भोग का क्रम भी न बन सकेगा। इन अनेक विकल्पों के प्रसंग में विविध उपस्थित असुविधाओं को देखते हुए यह मानना अधिक उचित प्रतीत होता है कि जन्म से लेकर मरणपर्यन्त किये गये समस्त कर्मसमूह के द्वारा विवधतापूर्ण विचित्र फलों वाले जन्म का प्रारम्भ होता है। क्योंकि वह समूह एक होता है अतः इससे एक जन्म का प्रारम्भ होता है, तथा कर्मसमूह में कर्मों की बहुलता और वैचित्र्य विद्यमान रहने के कारण प्राप्त जन्म में भी फलों की बहुलता-विचित्रता रहा करती है।
सामान्यतः अदृष्ट जन्मवेदनीय कर्माशय का विपाक जन्म, आयु और भोग तीनों रूपों में संभव है, जबकि दृष्ट जन्मवेदनीय कर्मों के संस्कार प्रायः भोग की ही सृष्टि करते हैं;
१. क्लेशावनद्धः कर्माशयो विपाकारम्भी भवति, नापनीतक्लेशो न प्रसंख्यानदग्धक्लेशबीजभावो
वेति । योगभाष्य २. १३. २. तस्माज्जन्मप्रयाणान्तरे ( मरणान्तरे ) कृतः पुण्यापुण्यकर्माशयप्रचयो विचित्रः प्रधानोप
सर्जनीभावेनावस्थितः प्रयाणाभिव्यक्त एक प्रघट्टकेन मिलित्वा मरणं प्रसाध्य सम्मूच्छित एकमेव जन्म करोति । प्रयाणभिव्यक्त तच्च जन्म तेनैव कर्मणा लब्धायुष्कं भवति । तस्मिन्नायुषि तेनैव कर्मणा भोगः सम्पद्यते ।
--योगभाष्य, २.१३
धम्मो दीयो संसार समुद्र में धर्म ही दीय।
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