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आध्यात्मिक जीवन का अभिन्न अंग उपासना / ७१
ये छह बाह्य और छह प्राभ्यंतर, कुल बारह तप हैं, जिनकी साधना सम्यक् रूप से की जाय तो मन विषय विकारों से रहित होकर निर्मल बनता है और निर्मल मन के द्वारा ही वीतराग प्रभु व पंच परमेष्ठियों की उपासना सम्यक् रूप से हो सकती है जगत में मङ्गलरूप, लोकोत्तम एवं शरण्यभूत पंच परमेष्ठी ही होने से पंच - नमस्कार मंत्र का जप अथवा इसकी उपासना करना आवश्यक है । यद्यपि ध्यान साधना अथवा उपासना का सच्चा लक्ष्य तो आत्मा को परमात्मा बनाना हो है, किन्तु जब तक श्रात्म-दर्शन नहीं होता तब तक मन को एकाग्र करने के लिये उसे तप के द्वारा शुद्ध करके पंच परमेष्ठियों का आदर्श सन्मुख रखकर मंत्र रूप जप या महामंत्र की उपासना करनी चाहिये।
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श्रुत-साधन्ध
मुमुक्षु के लिये सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति करना अनिवार्य है। सम्यग् ज्ञान के प्रभाव में अज्ञान रहेगा तथा अज्ञानावस्था में श्रात्म-विकास या श्रात्म शुद्धि के लिये की जाने वाली कोई भी क्रिया लाभप्रद नहीं होगी । सूत्रकृतांग में बताया गया है:
जहा अस्साविण णावं, जाइअंधो दुरूहिया ।
इच्छइ पारमागंतु अंतरा य विसीय ॥
-अज्ञानी साधक उस जन्मांध व्यक्ति के सहश है, जो छिद्रवाली नौका पर चढ़कर नदी के किनारे पहुँचना चाहता है, किन्तु किनारा थाने से पहले ही मध्य प्रवाह में दूब जाता है ।
इसीलिये साधना और उपासना करने से पूर्व सम्यग्ज्ञान प्राप्त करना तथा पुनः पुनः स्वाध्याय करना आवश्यक है। ज्ञान की महिमा अपरम्पार है, अतः ज्ञानी और अज्ञानी के कर्म - नाश में भी महान् अन्तर है । इस विषय में बताया गया है:कोटिजन्म तप तपैं, ज्ञान बिन कर्म झरें जे,
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ज्ञानी के छिन में त्रिगुप्ति तें सहज टरें ते ।
मिथ्याज्ञानी जीव करोड़ों जन्मों तक अज्ञानतापूर्वक तपरूप
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उद्यम करके जितने कर्मों का नाश कर पाता है, उतने कर्मों का नाश सम्यग्ज्ञानी जीव के त्रिगुप्ति से अर्थात् मन, वचन और काय की प्रवृत्ति को रोकने से क्षणमात्र में सहज रूप से नष्ट हो जाते हैं। पर ऐसा तभी हो सकता है, जबकि सिद्ध, परिहंत अथवा परमात्मा किसी भी रूप का चिन्तन, जिसे उपासना कहा जा सकता है, उसे एकाग्रतापूर्वक चरम सीमा तक पहुँचा दिया जाय ।
व्रत-साधना
व्रत नाम है संयम का इन्द्रियों के विषय में यथेच्छ प्रवृत्ति को 'अवत' कहते हैं तथा इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करना व्रत या संयम कहलाता है । अव्रती अथवा असंयमी साधक या उपासक को मनोवृत्तियां संसार के भोगोपभोगों की घोर प्रवृत्त होती रहती हैं। प्रतः वह उपासना में समीचीन रूप से तन्मय नहीं हो सकता, किन्तु जो व्रती और संयमी होता है वह अनासक्त होने के कारण उपासना-रत रहता हुआ कर्मनाश करता चला जाता है तथा अन्त में स्वयं अपने उपास्यवत् हो जाता है।
वीतरागो विमुच्येत, वीतरागं विचिन्तयन् ।
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धम्मो दीयो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है
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