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माया के विषय में कबीर की उक्ति है -
माया दीपक नर पतंग प्रमि मि इवै परन्त
कहै कबीर गुर ग्यान तें, एक आध उबरन्त अपरिग्रह एवं संतोषवृत्ति का इससे अच्छा और क्या दृष्टान्त होगा -
साई इतना दीजिए जामें कुटुम्ब समाय। मैं भी भूखा न रहूं, साधु न भूखा जाए। गौधन गजधन बाजिधन और रतन धन खान
जब आवै सन्तोष धन सब धन धूरि समान॥ ये उद्धरण साम्यदृष्टि दर्शाने के अभिप्राय से दिए गए हैं। यहाँ 'आचारांग' और 'कबीर-वाणी' में जीवन के व्यावहारिक रूप को बिम्बायित पायेंगे। दोनों कृतियों में जहाँ आध्यात्मिक तत्वों का विश्लेषण है, बहिर्मुखी चेतना के साथ ऊर्ध्वमुखी चेतना का प्राबल्य है, वहाँ समाज के परिष्कार-परिमार्जन के लिए सुधारवादी दृष्टिकोण का आधिक्य भी विद्यमान है। “आचारांग"२ में कैसी सारगर्भित बात कही गई है -“जो अध्यात्म को जानता है, वह बाह्य को जानता है, जो बाह्य को जानता है, वह अध्यात्म को जानता है।" कबीर कहते हैं -
लाली मेरे लाल की जित देखो तित लाल।
लाली देखन मैं गई मैं भी हो गई लाल॥ कबीर रचित रहस्यवादी भावना से आपूर्ण पद इसी श्रेणी में आते हैं। ३
तीर्थकरों ने समता को धर्म कहा है - “समियाए धम्मे" " (आचारांग)। सभी जीवों, प्राणियों को आत्मवत् जानकर, समता-धरातल पर उतर कर उनके साथ व्यवहार करना कल्याणप्रद है। विषमता, विसंगति कलह उत्पन्न करती है। कबीर इसीलिए कहते हैं, “हिन्दू तुरक की एक राह है सतगुरु यहि दिखलाई।" वह सबके साथ शीलभरा बर्ताव करने की प्रेरणा देते हैं मधुर वचन बोलने का उपदेश देते हैं क्योंकि मधुर वचन औषधि का काम करते हैं और कटु वचन तीर की भांति छेदने वाले होते हैं। अतः ऐसी वाणी बोलनी श्रेयस्कर है जो सब के तन-मन को शीतलता प्रदान करें -
ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोय। औरन को सीतल करे आपहुंसीतल होय॥
२. ३.
जे अज्झत्थं जाणइ से बहिया जाणइ। जे बहिया जाणइ, से अज्झत्थं जाणइ। (१,१४७) (क) दुल्हिन गाओ मंगलचार, हमारे घव आए रामराज भरतार (ख) बाल्हा आव हमारे रे, तुम बिन दुखिया देह रे। आचारांग-लोकसार ४०॥
४.
(१७९)
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