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प्रो. सागरमल जैन
किन्तु जहाँ बुद्ध ने एकान्तवादों को केवल नकारा, वहाँ महावीर ने उन एकान्तवादों में समन्वय किया। अतः दर्शन के क्षेत्र में बुद्ध की दृष्टि नकारात्मक रही है, जबकि महावीर की सकारात्मक इस प्रकार दर्शन और आचार के क्षेत्र में दोनों में जो भिन्नता थी, वह उनके साहित्य में भी अभिव्यक्त हुई है। फिर भी सामान्य पाठक की अपेक्षा से दोनों परम्परा के ग्रन्थों में क्षणिकवाद, अनात्मवाद आदि दार्शनिक प्रस्थानों को छोड़कर एकता ही अधिक परिलक्षित होती है।
आगमों का महत्त्व एवं प्रामाणिकता
प्रत्येक धर्म परम्परा में धर्म ग्रन्थ या शास्त्र का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है, क्योंकि उस धर्म के दार्शनिक सिद्धान्त और आचार व्यवस्था दोनों के लिए "शास्त्र" ही एक मात्र प्रमाण होता है हिन्दूधर्म में वेद का, बौद्धधर्म में त्रिपिटक का, पारसीधर्म में अवेस्ता का, ईसाईधर्म में बाइबिल का और इस्लाम में कुरान का, जो स्थान है, वही स्थान जैनधर्म में आगम साहित्य का है। फिर भी आगम साहित्य को न तो वेद के समान अपौरुषेय माना गया है और न बाइबिल या कुरान के समान किसी पैगम्बर के माध्यम से दिया गया ईश्वर का सन्देश ही, अपितु वह उन अर्हतों व ऋषियों की वाणी का संकलन है, जिन्होंने अपनी तपस्या और साधना द्वारा सत्य का प्रकाश प्राप्त किया था। जैनों के लिए आगम जिनवाणी है, आप्तवचन है, उनके धर्म-दर्शन और साधना का आधार है। वद्यपि वर्तमान में जैनधर्म का दिगम्बर समप्रदाय उपलब्ध अर्धमागधी आगमों को प्रमाणभूत नहीं मानता है, क्योंकि उसकी दृष्टि में इन आगमों में कुछ ऐसा प्रक्षिप्त अंश है, जो उनकी मान्यताओं के विपरीत है। मेरी दृष्टि में चाहे वर्तमान में उपलब्ध अर्धमागधी आगमों में कुछ प्रक्षिप्त अंश हों या उनमें कुछ परिवर्तन-परिवर्धन भी हुआ हो, फिर भी वे जैनधर्म के प्रामाणिक दस्तावेज है उनमें अनेक ऐतिहासिक तथ्य उपलब्ध है। उनकी पूर्णतः अस्वीकृति का अर्थ अपनी प्रामाणिकता को ही नकारना है। श्वेताम्बर मान्य इन अर्धमागधी आगमों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि ये ई. पू. पाँचवीं शती से लेकर ईसा की पाँचवीं शती अर्थात् लगभग एक हजार वर्ष में जैन संघ के चढ़ाव उतार की एक प्रामाणिक कहानी कम देते हैं।
अर्धमागधी आगमों का वर्गीकरण
वर्तमान जो आगम ग्रन्थ उपलब्ध है, उन्हें निम्न रूप में वर्गीकृत किया जाता है-
11 अंग
1. आवार ( आचारांग), 2. सूदगड (सूत्रकृतांग), 3. ठाण (स्थानांग), 4. समवाय (समवायांग), 5. विवाहपन्नत्ति (व्याख्याप्रज्ञप्ति या भगवती) 6. नायाधम्मकहाओ (ज्ञात-धर्मकथा ) 7. उदासगदसाओ ( उपासकदशा), 8. अंतगडदसाओ ( अन्तकृदशा) 9. अनुत्तरोववाइवदसाओ (अनुत्तरौपपातिकदशाः ), 10. पणनावागरणाई (प्रश्नव्याकरणानि) 11. विवागसूयं (विपाकश्रुतम् ) 12 दृष्टिवाद (दिट्ठिवाय), जो विच्छिन्न हुआ है। 12 उपांग
1. उक्वाइयं (औपपातिक) 2. रायपसेण्डजं (राजप्रसेनजित्कं) अथवा रायपसेणियं (राजप्रश्नीयं ), 3. जीवाजीवाभिगम, 4. पण्णवणा (प्रज्ञापना) 5. सूरपण्णत्ति (सूर्यप्रज्ञप्ति), 6. जम्बुद्वीवपण्णत्ति (जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति), 7. चंदपण्णत्ति (चन्द्रप्रज्ञप्ति) 8-12 निरयावलियासुयक्खंध (निरयावलिकाश्रुतस्कन्ध ),
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