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________________ ८. अधिकांश संस्कृत काव्यों और नाटकोंकी भाँति अमरुशतक भी नागर संस्कृतिकी उपज है । अमरुक द्वारा चित्रित पुरुष और स्त्री नागरिक वातावरण में साँस लेते हैं। वे नागरिक जीवनकी सुखसुवि धाओंके अभ्यस्त है। उनके भावों और अभिव्यक्तियोंमें भी नागरिक परिष्कार दृष्टिगोचर होता है। किन्तु अमरुकके शतक तथा नागरिक संस्कृतिमें साँस लेनेवाली अन्य साहित्यिक कृतियों में एक मौलिक भेद जबकि अधिकांश संस्कृत काव्य और नाटक प्रमुखतः दरवारी संस्कृतिके प्रतीक है और घिसेपिटे जैसे लगते हैं, वहाँ अमरुशतक सामान्यजन द्वारा अनुभूत शृङ्गारिक भावों और परिस्थितियोंका चित्रण करता है और फलतः अधिक मर्मस्पर्शी बन पड़ा है। नैतिक दृष्टिसे अन्य अनेक काव्यों और नाटकों की अपेक्षा अमरुशतक उच्च धरातलपर स्थित है। उसमें विधिपूर्वक विवाहित स्त्री और पुरुषके प्रेम जीवनका चित्रण है। प्राचीन परम्पराके अनुसार पुरुषकी एकाधिक पत्नियाँ हो सकती हैं और हो सकता है कि वह उनमें से प्रत्येकके प्रति पूर्णतः निष्ठावान् न हो, किन्तु सारे काव्यमें कहीं भी कोई स्त्री अपने पतिके अतिरिक्त किसी अन्य पुरुषसे प्रेम करती हुई अङ्कित नहीं की गयी उसके लिए अपने पतिके प्रेमपणे स्पर्शसे बड़ी प्रसन्नता और उसके विरहसे अधिक दुःख नहीं नहीं हो सकता । प्रेमी-प्रेमिका के बीच कलह दुर्लभ नहीं है, वस्तुत: बहुसङ्ख्यक श्लोकोंका यही विषय है; किन्तु वे बहुधा क्षणिक है और सरलता से समाप्त हो जाते हैं। अमरुक की दृष्टिमें उम्मुक्त और मनचाहे प्रेमके लिए कोई स्थान नहीं है । ९. काका क्षेत्र अत्यधिक सीमित होनेके कारण स्वभावतः उसमें तत्कालीन जीवनकी वह विविधता दृष्टिगोचर नहीं होती जो महाकाव्यों और नाटकोंमें। साथ ही कविका निश्चित देशकाल ज्ञात न होनेसे यह निर्णय करना भी कठिन है कि वह किस देशके किस भाग अथवा कालका चित्रण कर रहा है । किन्तु जैसा कि हम कह आये हैं अमरुक संभवतः कश्मीरका निवासी था और आठवीं शती के मध्यके पूर्व किसी समय हुआ । अतः मोटे तौरपर हम कह सकते हैं कि अमरुशतक में मध्यकालीन कश्मीरी जोवन चित्रित है । केवल प्रेमजीवन काव्यका वर्ण्य विषय होनेके कारण विशेषतः स्त्रियोंकी वेश-भूषा, आभूषण, प्रसाधन और केश विन्यास जैसे विषयोंपर ही इधर-उधर बिखरे हुए उल्लेखोंसे प्रकाश पड़ता है । सम-सामयिक जीवनके अन्य पहलुओंपर प्राप्त सामग्री अत्यल्प है । १०. जैसा कि हमने ऊपर कहा है, अमरुक मतका अनुयायी था और इसलिए स्वभावतः ही उसने काव्य के आरम्भ में भगवान् शिव (श्लो० २) और देवी अम्बिका ( श्लो० १ ) की वन्दना की है। शिव द्वारा त्रिपुर (राक्षसों के तीन नगर ) के विनाश और त्रिपुरकी युवतियोंके शोकका उल्लेख किया गया है (हलो० २ ) । हरिहर (विष्णु और शिवका मिश्रित रूप) स्कन्द ( श्लो० ३) और यम (श्लो० ६७ ) की भी चर्चा की गयी है । यसको दिन गिननेमें कुशल ( दिवसगणनादक्ष ) तथा निर्दय (व्यपेतघृण ) कहा गया है। देवों द्वारा सागर मन्थनकी पौराणिक गाथाकी ओर श्लोक ३६ में संकेत किया गया है। प्रेम जीवनका वर्णन करनेवाले काव्य में कामका उल्लेख होना स्वाभाविक ही है। उसके लिए मन्थन ( इलो० ११५), मकरध्वज (श्लो० १४६) और मनोज ( श्लो० १३७) शब्दों का प्रयोग किया गया है और उसे तीन लोकोंका महान् धनुर्धर ( त्रिभुवन महाधन्वी ) कहा गया है ( श्लो० ११५) । तीर्थयात्राका इतिहास भारतमें अत्यन्त प्राचीन है । तीर्थोंमें मृतकको जलकी अञ्जलि ( तोयाञ्जलि ) देनेकी प्रथा लोकप्रिय थी (लो० १३२) । १. हरि और हरका उल्लेख भी अभिप्रेत हो सकता है। टीकाकारोंका यही मत है । २६ Jain Education International For Private & Personal Use Only भाषा और साहित्य २०१ www.jainelibrary.org
SR No.210106
Book TitleAmru Shatak ki Sanskrutik Prushthabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjay Mitra Shastri
PublisherZ_Nahta_Bandhu_Abhinandan_Granth_012007.pdf
Publication Year
Total Pages9
LanguageHindi
ClassificationArticle & Kavya
File Size742 KB
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