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________________ आचारांग एवं कल्पसूत्र में वर्णित महावीर-चरित्रों का विश्लेषण एवं उनकी पूर्वापरता का प्रश्न ९ (१) आचारांग में कुण्डपुर (७३४, ७३५, ७५३) को एक संनिवेश कहा गया है जब कि कल्पसूत्र में उसे (२, १५, १९, २३, २५, २७, ३०) एक नगर कहा गया है। (२) आचारांग में गर्भापहरण के साथ (७३५) मात्र एक अनुकम्पक देव जुड़ा हुआ है जब कि कल्पसूत्र में इस देव को हरिणेगमेसि (१७-२८) कहा गया है और इस कार्य के साथ शक्रेन्द्र को भी जोड़ दिया गया है । हरिणेगमेसि का यह वर्णन भगवतीसूत्र में (सू० १,७) आता है। (३) आचारांग में प्रव्रज्या के समय एक शाटक ग्रहण (७६६) करने का उल्लेख है जब कि कल्पसूत्र में (११४) उसके साथ दिव्यता जोड़ कर उसे देवदूष्य कहा गया है। आचारांग प्रथम श्रुतस्कन्ध के उवहाणसुत्त (२५५) में भी देवष्य का उल्लेख नहीं है ( णो चेविमेण वत्थेण पिहिस्सामि ) परन्तु वस्त्र का ही उल्लेख है [ आचारांग के अनुसार (७६६ ) एक शाटक ग्रहण करके दीक्षा के समय सभी आभरण-अंलकारों का त्याग करते हैं। बाद में कहीं पर भी उस शाटक का उल्लेख नहीं आता है इससे ऐसा अनुमान हो सकता है कि दीक्षा के कुछ समय बाद उस शाटक को भी त्याग दिया होगा । उवहाणसुत्त ( २५७, २७५ ) के अनुसार उसे वर्षाधिक रखा था। कल्पसूत्र (११५) के अनुसार देवदूष्य को एक वर्ष के बाद छोड़ दिया था।] (४) इन तथ्यों के आधार से कहा जा सकता है कि सभी परिवर्तनों के बावजूद भी आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध का महावीर-चरित्र आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के मूल के नजदीक प्रतीत होता है । कल्पसूत्र का महावीर-चरित्र चाहे प्रथम स्थिति में आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के महावीर-चरित्र का आधार रहा हो, किन्तु बाद में उसमें बहुत अधिक जोड़ दिया गया है और इस प्रकार वह अपने मूल रूप में स्थित नहीं रह सका। (५) महावीर-चरित्र : संभावित विकास ___ मूल प्रसंग १ से ५ एवं दोनों ग्रन्थों में विकसित सामग्री आचारांग कल्पसूत्र (१) गर्भ में अवतरण (क) कुल की समृद्धि में वृद्धि होना। (क) तेईस तीर्थंकरों के बाद, , , (ख) पूर्व तीर्थंकरों के निर्देशानुसार, (ग) चरम तीर्थंकर के रूप में गर्भ में आना, (घ) कुल की समृद्धि में वृद्धि होना [ आचारांग के बाद कल्पसूत्र में जुड़ा होगा क्योंकि अर्वाचीन प्रतों में ही यह बात मिलती है।] (ङ) स्वप्न-दर्शन (च) स्वप्न-वर्णन [ स्वप्न-दर्शन के बाद यह जोड़ा गया होगा ।] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210073
Book TitleAcharang aur Kalpasutr me Varnit Mahavir Charit ka Vislesan aur Purvaparta Prashn
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK R Chandra
PublisherZ_Aspect_of_Jainology_Part_3_Pundit_Dalsukh_Malvaniya_012017.pdf
Publication Year1991
Total Pages11
LanguageHindi
ClassificationArticle & Agam
File Size742 KB
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