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________________ आचारांग एवं कल्पसूत्र में वर्णित महावीर-चरित्रों का विश्लेषण एवं उनकी पूर्वापरता का प्रश्न ७ है। अन्य जगह पर मूल पाठ में तीर्थंकर शब्द नहीं है, सब जगह उन्हें 'समणे भगवं महावीरे' कहा गया है। दोनों ही चरित्रों में केवल ज्ञान होने के बाद भी उन्हें 'जिन' ही कहा गया है ( आचारांग ७७३, कल्पसूत्र १२१ ) । आचारांग की इस सामग्री में समास-बहुलता एवं काव्यात्मक कृत्रिम शैली के दर्शन होते हैं । उदाहरणार्थ-सिंहासन, शिविका, वनखंड आदि के वर्णन ७४७-७६५ । २. (ज) आचाराङ्ग के कुछ पाठों को अस्पष्टता एवं व्याकरण सम्बन्धी त्रुटियाँ (१) समणे भगवं महावीरे अणुकंपएणं देवेणं. कुच्छिसि गम्भं साहरति (७३५) । 'साहरति' के स्थान पर 'साहरिते' होना चाहिए ऐसा सम्पादक ने भी सूचित किया है । (२) तं णं राई...... देवेहि देवीहि य....."उम्पिजलगभूते यावि होत्था (७३७)। यावि के पहले 'करने के अर्थ वाला' कोई रूप आना चाहिए था। कल्पसूत्र में (१४) ऐसा पाठ है-'सा णं रयणी"उप्पिजलमाणभूया होत्था' जो व्याकरण की दृष्टि से शुद्ध है। (३) सूत्र ७७२ में 'गिम्हाणं दोसे मासे' पाठ आया है कल्पसूत्र में (१२०) 'दोच्चे मासे' आता है । यहाँ सम्पादक ने कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया है । ३ (क) कल्पसूत्र में उपलब्ध परन्तु आचारांग में अनुपलब्ध सामग्री (१) तेईस तीर्थंकरों के पश्चात् चरम तीर्थंकर के रूप में पूर्व तीर्थंकरों के निर्देश के अनुसार गर्भ में अवतरण (२) (२) गर्भधारण करते समय देवानन्दा द्वारा चौदह स्वप्न देखना; त्रिशला द्वारा भी उसी प्रकार स्वप्न-दर्शन (३२-८३); (पति को सूचित करना एवं पति द्वारा स्वप्न फल कहना (६-१२), स्वप्नों का विस्तृत वर्णन, स्वप्नलक्षण पाठकों से उनके फल-विषयक जानकारी प्राप्त करना) [स्वप्न विषयक वर्णन बाद में जोड़ा गया है ऐसा पूज्य मुनि श्रीपुण्यविजयजी का स्पष्ट अभिप्राय है ] (३) गर्भापहरण के बाद सिद्धार्थ के घर में देवताओं द्वारा बहुमूल्य निधान लाना (८४) । (४) माता पर अनुकम्पा लाकर भगवान् महावीर द्वारा गर्भ में हलन चलन बन्द कर देना और फिर अभिग्रह धारण करना कि माता-पिता के जीते प्रव्रज्या धारण नहीं करूँग्रा ( ८७-९१) ( आचारांग में मात्र प्रतिज्ञा पूरी होने का उल्लेख है)। (५) कुण्डपुर को सजाने का वर्णन, नामकरण के अवसर पर दशाह मनाने का लम्बा वर्णन ( ९६.९९ )। (६) गुरुजनों की आज्ञा लेकर प्रव्रज्या धारण करना ( ११०)। (७) वर्षाधिक समय तक चीवर रखना. बाद में 'अचेल पाणि-पडिग्गह' बनना । ११५ ) । (८) इसके पश्चात् जो सामग्री मिलती है वह आचारांग में नहीं दी गयी है गाँव और नगर में ठहरने की मर्यादा, वर्षावास एवं स्थलों का उल्लेख, इन्द्रभूति गौतम को केवल-ज्ञान, मल्लवियों एवं लिच्छवियों द्वारा द्रव्योद्योत करना, भविष्यवाणी इत्यादि (११७-१४७) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210073
Book TitleAcharang aur Kalpasutr me Varnit Mahavir Charit ka Vislesan aur Purvaparta Prashn
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK R Chandra
PublisherZ_Aspect_of_Jainology_Part_3_Pundit_Dalsukh_Malvaniya_012017.pdf
Publication Year1991
Total Pages11
LanguageHindi
ClassificationArticle & Agam
File Size742 KB
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