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डॉ. वशिष्ठ नारायण सिन्हा
विवेचन मिलता है उस विवेचन में अहिंसा के जो साठ नाम बताए गए हैं, उनसे साफ जाहिर होता है कि प्राणिमात्र के कल्याण के जो भी रूप हो सकते हैं, वे सभी इसमें समाहित हैं। यद्यपि जैनदर्शन अनेकान्तवादी है परन्तु जब अहिंसा की बात आती है, तो यह अद्वैतवादी या अभेदवादी जान पड़ता है क्योंकि यह सभी प्राणियों को एक जैसा मानता है। समानता को देखते हुए ही यह व्यक्त करता है कि आत्मा एक है। आचारांगसूत्र में कहा गया है।
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" जिसे तू मारना चाहता है, वह तू ही है। जिसे तू शासित करना चाहता है, वह तू ही है। जिसे तू परिताप देना चाहता है, वह तू ही है।
उपाध्याय अमरमुनिजी के शब्दों में "भगवान महावीर का अहिंसाधर्म एक उच्चकोटि का आध्यात्मिक एवं सामाजिक धर्म है यह मानव जीवन को अन्दर और बाहर दोनों ओर से प्रकाशमान करता है। महावीर ने अहिंसा को भगवती कहा है मानव की अन्तरात्मा को अहिंसा भगवती, बिना किसी बाहरी दबाव, भय, आतंक अथवा प्रलोभन के सहज अन्तः प्रेरणा देती है कि मानव विश्व के अन्य प्राणियों को भी अपने समान समझे, उनके प्रति बिना किसी भेदभाव के मित्रता एवं बन्धुता का प्रेमपूर्ण व्यवहार करे मानव को जैसे अपना अस्तित्व प्रिय है, अपना सुख अभीष्ट है, वैसे ही अन्य प्राणियों को भी अपना अस्तित्व तथा सुख, प्रिय एवं अभीष्ट है परिबोध ही अहिंसा का मूल स्वर है अहिंसा "स्व" और "पर" की, "अपने" और "पराए" की, "घृणा" एवं "बैर" के आधार पर खड़ी की गई भेद-रेखा को तोड़ देती है। 1
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अहिंसा का सिद्धान्त रचना में विश्वास करता है, ध्वंस में नहीं विश्व में जो भी रचनात्मक एवं कल्याणकारी गतिविधियाँ है, उनके पीछे किसी न किसी रूप में अहिंसा ही काम करती है। हिंसा नाशकारी होती है बैर, द्वेष, घृणा, लोभ, क्रोध आदि हिंसा के ही रूप है और इन्ही से समाज का विध्वंस होता है। इसके विपरीत अहिंसा प्रेम, स्नेह, अपनापन एवं सद्भाव का प्रतिनिधित्व करती है, जिनसे सुखमय सामान्य की रूपरेखा बनती है। यदि अहिंसा नहीं होती तो आज का समाज या विश्व चाहे वह जिस रूप में भी क्यों न हो, दिखाई नहीं देता। यदि मनुष्यों के बीच आपसी स्नेह, सद्भाव एवं अपनापन नहीं होते तो रिश्तेनाते भी नहीं बन पाते। रिश्तेनातों के अभाव में परिवार नहीं बनता परिवार के अभाव में समाज, समाज के अभाव में राष्ट्र और राष्ट्र के अभाव में विश्व नहीं होता। विश्व अहिंसा पर ही आधारित है है, विकास नहीं । अतः विश्व कल्याण के लिए अहिंसा अनिवार्य है ।
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अहिंसा के अभाव में इसका ह्रास हो सकता
हिंसा से हिंसा को नहीं जीत सकते, किन्तु अहिंसा से हिंसा को अपने वश में कर सकते हैं इसीलिए मसीह ने कहा था- "जब तुम्हें कोई व्यक्ति तुम्हारी गाल पर एक तमाचा मारता है तो उसके सामने अपनी
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दूसरी गाल भी कर दो।" स्नेह और सेवा के कारण ही आज मसीहीधर्म विश्व के कोने-कोने में फैला हुआ है। अहिंसा के अभाव में विश्व शान्ति की कल्पना भी नहीं की जा सकती है उपाध्याय अमरमुनिजी के ही शब्दों में-- "आज जो विश्व नागरिक की कल्पनां कुछ प्रबुद्ध मस्तिष्कों में उड़ान ले रही है, "जय जगत्" का उद्घोष कुछ समर्थ चिन्तकों की जिन्वा पर मुखरित हो रहा है, किन्तु उसको मूर्तरूप अहिंसा के द्वारा ही मिलना सम्भव है। 2
अपरिग्रह जैनदर्शन की एक महत्त्वपूर्ण विधा है अपरिग्रह के बिना अहिंसा का पालन नहीं हो सकता। यदि अहिंसा का पालन नहीं होता है तो समाज का कल्याण सम्भव नहीं है। आवश्यकता से अधिक संचय करना परिग्रह है और आवश्यकतानुसार एवं संयमित ढंग से संग्रह करना अपरिग्रह है। बौद्धदर्शन में अष्टांगमार्ग को
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