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अणुव्रत और अणुव्रत आन्दोलन
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प्रति धोखा होगा। पूजा नहीं करने वाले का तो सम्भव है किसी प्रकार उद्धार भी हो जाये किन्तु प्रात्म-प्रवंचक और कर्म-प्रवंचक का कभी उद्धार नहीं हो सकता। यदि मानव समाज को जीवित रखना है तो अणुव्रत के आदर्शों को अपनाना होगा। हमें युग प्रधान आचार्य श्री तुलसी की आवाज को शक्ति देनी है, उनके हाथों को मजबूत करना है। यद्यपि आचार्य श्री तुलसी स्वयं समर्थ है किन्तु सर्व-साधारण का समर्थन मिलने से उनके अभियान में और गतिशीलता आयेगी।
एक युग था, जब नैतिक मूल्यों की कोई चर्चा नहीं होती थी। यह बात नहीं है कि उस समय मनुष्य के मन में दुर्बलताएँ नहीं थीं, बुराइयां नहीं थीं। पर उसका स्वरूप भिन्न था और बुराई के प्रतिकार का क्रम भी दूसरा था। धीरे-धीरे मनुष्यों के मन-विचार और प्रवृत्तियों में जो परिवर्तन हुए, उन्होंने नैतिक आन्दोलन की अपरिहार्यता अनुभव करा दी । अणुव्रत आन्दोलन भी उसी शृंखला की एक सशक्त कड़ी है।
मनुष्य के मन की धरती पर विचारों की पौध उगती है । उस पौध में कहीं फूल खिले होते हैं, कहीं कांटे बिछे होते हैं । कभी वह पतझर की भाँति वीरान हो जाती है और कभी मधुमास की बहारों से भर जाती है। उसके किसी भाग में अन्धकार भरा है तो दूसरा उजालों से खिला हुआ है। मन की इस धरती पर केवल आरोह-अवरोह ही नहीं, द्वन्द्वों का जाल भी है । उस द्वन्द्वात्मक जाल को काटकर आगे बढ़ने के लिए नैतिक बल की अपेक्षा रहती है। जिस व्यक्ति के पास नैतिकता का पाथेय नहीं है, वह अपनी जीवन-यात्रा में श्रान्त और क्लांत हो जाता है। किसी भी क्षेत्र में गति करने के लिए नैतिक बल की नितान्त अपेक्षा रहती है। धर्म और अध्यात्म की फलश्रुति तो नैतिकता ही है, समाज और राजतन्त्र भी नैतिकता के प्रभाव से मुक्त रहकर अपनी नीति में सफल नहीं हो सकते।।
स्वयं अणुव्रत आन्दोलन के जनक युग-प्रधान आचार्य श्री तुलसी के शब्दों में, “आज बुद्धिवाद और वैज्ञानिक सुविधाएँ जिस रूप में बढ़ रही हैं, युग-चेतना में सत्ता सम्पदा और आत्मख्यापन की भूख भी तीव्र होती जा रही है । इस भूख ने मनुष्य को इतना असहाय और किंकर्तव्यविमूढ़ बना दिया है कि वह इसकी पूर्ति के लिए उचितानुचित कुछ भी करने में झिझकता नहीं। इस स्थिति को नियन्त्रित करने के लिए वैयक्तिक और सामूहिक, दोनों स्तरों पर प्रयत्न करने की अपेक्षा है । अणुव्रत आन्दोलन का उद्देश्य दोनों ओर से काम करने का रहा है। भारत में अपनी श्रेणी का यह पहला आन्दोलन है जिसने व्यक्ति चेतना और समूह-चेतना को समान रूप से प्रभावित किया है।"
असाम्प्रदायिक आन्दोलन इस आन्दोलन का दृष्टिकोण प्रारम्भ से ही असाम्प्रदायिक रहा है। सब धर्मों की समान भूमिका पर रहकर कार्य करते रहना हो इसने अपना श्रेय मार्ग चुना है। असम्प्रदाय भावना से अणुव्रत-आन्दोलन को सबके साथ मिलकर तथा सबका सहयोग लेकर सामूहिक रूप से कार्य करने का सामर्थ प्रदान किया है।
प्रथम अधिवेशन का आकर्षण अणुव्रत आन्दोलन का प्रथम वार्षिक अधिवेशन भारत की राजधानी दिल्ली में हुआ। पहले-पहल शिक्षित वर्ग ने उनकी बातों को उपेक्षा व उपहास की दृष्टि से देखा, पर आचार्य श्री की आवाज जनता की आवाज थी, उसकी उपेक्षा की नहीं जा सकती थी। उनकी बातों ने धीरे-धीरे जनता के मन को छुआ और आन्दोलन के प्रति आकर्षण बढ़ने लगा । अनैतिक वातावरण में मनुष्य जहाँ स्वार्थ को ही प्रमुख मानकर चलता है, परमार्थ को भूलकर भी याद नहीं करता, वहाँ कुछ व्यक्तियों का अणुव्रती बनना एक नया उन्मेष था।
पत्रों की प्रतिक्रिया पत्रकारों पर उस घटना का बहुत अनुकूल प्रभाव हुआ। देश के प्रायः सभी दैनिक पत्रों ने बड़े-बड़े शीर्षकों से उन समाचारों को प्रकाशित किया। अनेक पत्रों में एतद्विषयक सम्पादकीय लेख भी लिखे गये। हिन्दुस्तान
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