________________
विवेक चूडामणि
१८२
अपगतकलिदोषं कामनिर्मुक्तबुद्धि
स्वसुतवदसवां भावयित्वा मुमुक्षुम् ||५७६ ॥ हे वत्स ! कलिके दोषोंसे रहित, कामनाशून्य तुझ मुमुक्षुको अपने पुत्र के समान समझकर मैंने बारंबार सकल शास्त्रोंका सारशिरोमणि यह अति गुह्य परम सिद्धान्त तेरे सामने प्रकट किया है । शिष्यकी विदा
इति श्रुत्वा गुरोर्वाक्यं प्रश्रयेण कृतानतिः ।
स तेन समनुज्ञातो ययौ निर्मुक्तबन्धनः ॥ ५७७॥ गुरुदेव के ऐसे वचन सुन शिष्यने अति नम्रतासे उन्हें प्रणाम किया और संसार-बन्धनसे मुक्त हो उनकी आज्ञा पाकर चला गया । गुरुरेवं सदानन्दसिद्धौ निर्मग्नमानसः ।
पावयन्वसुधां सर्वा विचचार निरन्तरम् ||५७८ ॥ और गुरुजी भी सच्चिदानन्दसमुद्रमें मनमन हुए सम्पूर्ण पृथिवीको पवित्र करते निरन्तर विचरने लगे ।
अनुबन्ध-चतुष्टय
इत्याचार्यस्य शिष्यस्य संवादेनात्मलक्षणम् । मुमुक्षूणां सुखबोधोपपत्तये ॥ ५७९ ॥
निरूपितं
इस प्रकार गुरु और शिष्यके संवादरूपसे मुमुक्षुओंको सुगमताबोध होनेके लिये यह आत्मज्ञानका निरूपण किया गया है। *
* इस श्लोक में श्रीशंकराचार्यजीने ग्रन्थके अनुबन्ध चतुष्टयका वर्णन किया है । इस ग्रन्थका अधिकारी मुमुक्षु पुरुष है, विषय आत्मज्ञान है, सम्बन्ध निरूप्य - निरूपक है और प्रयोजन 'मुमुक्षुओंको सुगमतासे आत्मज्ञानकी सिद्धि' है ।
http://www.ApniHindi.com