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विवेक-चूडामणि
पत्रस्य पुष्पस्य
फलस्य नाशवद देहेन्द्रियमाणधियां विनाशः ।
नैवात्मनः स्वस्य सदात्मकस्यानन्दकृतेर्वृक्षवदस्ति चैषः ॥५६१॥
वृक्षके पत्ते, फूल और फलोंके समान नाश तो जीवके देह, इन्द्रिय, प्राण और बुद्धि आदिका ही होता है, सदानन्दखरूप स्वयं आत्माका नाश कभी नहीं होता; वह तो वृक्षके समान नित्य निश्चल है ।
प्रज्ञानघन इत्यात्मलक्षणं सत्यसूचकम् । अनूद्योपाधिकस्यैव कथयन्ति विनाशनम् ॥५६२ ॥
'प्रज्ञानघन' यह आत्माका लक्षण उसकी सत्यताका सूचक - विज्ञजन ऐसा अनुवाद ( वर्णन ) करके उपाधि-कल्पित वस्तुका ही विनाश बताते हैं ।
अविनाशी वा अरेऽयमात्मेति श्रुतिरात्मनः । प्रब्रवीत्यविनाशित्वं विनश्यत्सु
विकारिषु । ५६३॥
"अरे यह आत्मा अविनाशी है' यह श्रुति भी विकारी देह आदिका नाश होनेपर आत्मा अविनाशित्वका ही प्रतिपादन करती है ।
पाषाणवृक्षतृणधान्यकटाम्बराद्या
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दग्धा भवन्ति हि मृदेव यथा तथैव ।
देहेन्द्रियासुमन आदि समस्तदृश्यं
ज्ञानाग्निदग्धमुपयाति परात्मभावम् ||५६४ ॥
* 'अविनाशी वा अरेऽयमात्मानुच्छित्तिधर्मा' (बृह० ४ १५ | १४
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