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________________ ९४३ जीवन्मुकके लक्षण साधुभिः पूज्यमानेऽसिन्पीड्यमानेऽपि दुर्जनैः। समभावो भवेद्यस्य स जीवन्मुक्त इष्यते ॥४४१॥ साधु पुरुषोंद्वारा इस शरीरके सत्कार किये जानेपर और दुष्टजनोंसे पीड़ित होनेपर भी जिसके चित्तका समानभाव रहता है वह मनुष्य जीवन्मुक्त माना जाता है। यत्र प्रविष्टा विषयाः परेरिता नदीप्रवाहा इव वारिराशौ । लिनन्ति सन्मात्रतया न विक्रिया __मुत्पादयन्त्येष यतिर्विमुक्तः ॥४४२॥ समुद्रमें मिल जानेपर जैसे नदीका प्रवाह समुद्ररूप हो जाता है वैसे ही दूसरोंके द्वारा प्रस्तुत किये विषय आत्मखरूप प्रतीत होनेसे जिसके चित्तमें किसी प्रकारका क्षोभ उत्पन्न नहीं करते वह यतिश्रेष्ठ जीवन्मुक्त है। विज्ञातब्रमतत्वस्य यथापूर्व न संसृतिः। अस्ति चेन स विज्ञातब्रह्मभावो बहिर्मुखः ॥४४३॥ ब्रह्मतत्त्वके जान लेनेपर विद्वान्को पूर्ववत् संसारकी आस्था नहीं रहती और यदि फिर भी संसारकी आस्था बनी रही तो समझना चाहिये कि वह तो संसारी ही है उसे ब्रह्मतत्त्वका ज्ञान ही नहीं हुआ। प्राचीनवासनावेगादसौ संसरतीति चेत् । । न सदेकत्वविज्ञानान्मन्दीमवति वासना ॥४४४॥ http://www.Apnihindi.com
SR No.100007
Book TitleVivek Chudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankaracharya, Madhavanand Swami
PublisherAdvaita Ashram
Publication Year
Total Pages445
LanguageSanskrit
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size19 MB
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