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आत्मचिन्तनका विधान मायामात्रमिदं द्वैतमद्वैतं परमार्थतः । इति ब्रूते श्रुतिः साक्षात्सुषुप्तावनुभूयते ॥४०६॥
श्रुति साक्षात् कहती है कि वह द्वैत मायामात्र है, वास्तवमें तो अद्वैत ही है; और ऐसा ही सुषुप्तिमें अनुभव भी होता है ।
अनन्यत्वमधिष्ठानादारोप्यस्य निरीक्षितम् । पण्डितै रज्जुसादौ विकल्पो भ्रान्तिजीवनः ॥४०७॥
रज्जु-सर्प आदिमें बुद्धिमान् पुरुषोंने अध्यस्त वस्तुका अधिष्ठानसे अभेद स्पष्ट देखा है, इसलिये [ ब्रह्ममें अध्यस्त यह संसाररूप] विकल्प अज्ञानजन्य भ्रमके कारण ही जीवित ( स्थित ) है ।
ww आत्मचिन्तनका विधान om चित्तमूलो विकल्पोऽयं चित्ताभावे न कश्चन । अतश्चित्तं समाधेहि प्रत्यग्रपे परात्मनि ॥४०८॥
यह विकल्प चित्तमूलक है, चित्तका अभाव होनेपर इसका कहीं नाम-निशान भी नहीं रहता। इसलिये चित्तको प्रत्यक् चैतन्यस्वरूप आत्मामें स्थिर करो। किमपि सततबोधं केवलानन्दरूपं
निरुपममतिवेलं नित्यमुक्तं निरीहम् । निरवधि गगनाभं निष्कलं निर्विकल्पं
हृदि कलयति विद्वान्ब्रह्म पूर्ण समाधौ ॥४०९॥ किसी नित्यबोधस्वरूप, केवलानन्दरूप, उपमारहित, कालातीत, नित्यमुक्त, निश्चेष्ट, आकाशके समान निःसीम, कला
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