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________________ विवेक-चूडामणि १२५ - अन्तः स्वयं चापि बहिः स्वयं च स्वयं पुरस्तात्स्वयमेव पश्चात् । स्वयं हवाच्या स्वयमप्युदीच्या . तथोपरिष्टात्स्वयमप्यधस्तात् ॥३९०॥ आप ही भीतर है, आप ही बाहर है, आप ही आगे है, आप ही पीछे है, आप ही दायें है, आप ही बायें है और आप ही ऊपर है, आप ही नीचे है। तरङ्गफेनभ्रमबुबुदादि सर्व स्वरूपेण जलं यथा तथा। · चिदेव देहायहमन्तमेतत् www सर्वp चिदेवैकरसं विशुद्धम् ॥३९१॥ जैसे तरङ्ग, फेन, भँवर और बुद्बुद आदि खरूपसे सब जल ही हैं, वैसे ही देहसे लेकर अहंकारपर्यन्त यह सारा विश्व भी अखण्ड शुद्धचैतन्य आत्मा ही है। सदेवेदं सर्व जगदवगतं वाङ्मनसयोः सतोऽन्यत्रास्त्येव प्रकृतिपरसीनि स्थितवतः । पृथक् किं मृत्स्नायाः कलशघटकुम्भाधवगतं वदत्येष भ्रान्तस्त्वमहमिति मायामदिरया ॥३९२॥ मन और वाणीसे प्रतीत होनेवाला यह सारा जगत् सत्स्वरूप ही है; जो महापुरुष प्रकृतिसे परे आत्मखरूपमें स्थित है उसकी दृष्टिमें सत्से पृथक् और कुछ भी नहीं है। मिट्टीसे पृथक् घट, कलश और कुम्भ आदि क्या हैं ? मनुष्य मायामयी मदिरासे उन्मत्त होकर ही मैं, तू'-ऐसी भेदबुद्धियुक्त वाणी बोलता है। http://www.Apnihindi.com
SR No.100007
Book TitleVivek Chudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankaracharya, Madhavanand Swami
PublisherAdvaita Ashram
Publication Year
Total Pages445
LanguageSanskrit
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size19 MB
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