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विवेक-चूडामणि
आशां छिन्धि विषोपमेषु विषयेष्वेषैव मृत्योः सुतिस्त्यक्त्वा जातिकुलाश्रमेष्वभिमति मुञ्चातिदूराक्रियाः। देहादावसति त्यजात्मधिषणां प्रज्ञां कुरुष्वात्मनि त्वं द्रष्टास्यमलोऽसि निर्द्वयपरं ब्रह्मासि यद्वस्तुतः॥३७८॥
विषके समान विषम विषयोंकी आशाको छोड़ दो, क्योंकि यह [ स्वरूपविस्मृतिरूप ] मृत्युका मार्ग है तथा जाति, कुल और आश्रम आदिका अभिमान छोड़कर दूरसे ही कोंको नमस्कार कर दो । देह आदि असत् पदार्थोंमें आत्मबुद्धिको छोड़ो और मात्मामें अहंबुद्धि करो, क्योंकि तुम तो वास्तवमें इन सबके द्रष्टा और मल तथा द्वैतसे रहित जो परब्रह्म है, वही हो। WWW.Apni Hindi.com
ध्यान-विधि लक्ष्ये ब्रह्माणि मानसं दृढतरं संस्थाप्य बाह्येन्द्रियं खस्थाने विनिवेश्य निश्चलतनुश्चोपेक्ष्य देहस्थितिम् । ब्रह्मात्मैक्यमुपेत्य तन्मयतया चाखण्डवृच्यानिशं ब्रह्मानन्दरसं पिबात्मनि मुदा शून्यैः किमन्यैर्धमः॥३७९।।
चित्तको अपने लक्ष्य ब्रह्ममें दृढ़तापूर्वक स्थिरकर बाह्य इन्द्रियोंको [ उनके विषयोंसे हटाकर ] अपने-अपने गोलकोंमें स्थिर करो, शरीरको निश्चल रखो और उसकी स्थितिकी ओर ध्यानः मत दो। इस प्रकार ब्रह्म और आत्माकी एकता करके तन्मयभावले अखण्ड-वृत्तिसे अहर्निश मन-ही-मन आनन्दपूर्वक ब्रह्मानन्दरसका पान करो और योगी बातोंसे क्या लेना है..................
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