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विवेक-चूरामणि
अधिष्ठान-निरूपण एतत्रितयं दृष्टं सम्यग्रज्जुस्वरूपविज्ञानात् । तसाद्वस्तु सतत्त्वं ज्ञातव्यं बन्धमुक्तये विदुषा ॥३४९॥
[ रज्जुमें भ्रमके कारण सर्पकी प्रतीति होती है और उस मिथ्या प्रतीतिसे ही भय, कम्प आदि दुःखोंकी प्राप्ति होती है किन्तु दीपक आदिके द्वारा जिस प्रकार ] रज्जुके खरूपका यथार्थ ज्ञान होते ही [ रज्जुका अज्ञान (आवरण), अज्ञानजन्य सर्प (मल) और सर्प-प्रतीतिसे होनेवाले भय, कम्प आदि (विक्षेप)] ये तीनों एक साथ निवृत्त होते देखे जाते हैं [ उसी प्रकार आत्मस्वरूपका ज्ञान होनेपर आत्माका अज्ञान, अज्ञानजन्य प्रपञ्चकी प्रतीति और उससे होनेवाले दुःखकी एक साथ ही निवृत्ति हो जाती है ] इसलिये संसार-बन्धनसे छूटनेके लिये विद्वान्को तत्त्वसहित आत्मपदार्थका ज्ञान प्राप्त करना चाहिये । अयोऽग्नियोगादिव सत्समन्वया
मात्रादिरूपेण विज़म्भते धीः । तत्कार्यमेतद्वितयं यतो मृषा
दृष्टं भ्रमखममनोरथेषु ॥३५०॥ अग्निके संयोगसे जैसे लोहा [ कुदाल आदि नाना प्रकारके रूपोंको धारण करता है ] उसी प्रकार आत्माके संयोगसे बुद्धि [ शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध आदि ] नाना प्रकारके विषयोंमें प्रकाशित होती है। यह द्वैत-प्रपश्च उस बुद्धिका ही कार्य है, इसलिये मिथ्या है। क्योंकि भ्रम, स्वप्न और मनोरथके समय इसकी प्रतीतिका मिथ्यात्व स्पष्ट देखा है।
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