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विवेक-चूडामणि
यह आनन्दमय कोश भी परात्मा नहीं है, क्योंकि यह उपाधियुक्त है, प्रकृतिका विकार है, शुभकमका कार्य है और प्रकृतिके विकारोंके समूह ( स्थूल शरीर ) के आश्रित है ।
पश्चानामपि कोशानां निषेधे युक्तितः श्रुतेः । तनिषेधावधिः साक्षी बोधरूपोऽवशिष्यते ॥ २१२ ॥
श्रुति के अनुकूल युक्तियोंसे पाँचों कोशोंका निषेध कर देनेपर उनके निषेधकी अवधिरूप बोधस्वरूप साक्षी आत्मा बच रहता है ।
योऽयमात्मा स्वयंज्योतिः पञ्चकोशविलक्षणः । अवस्थात्रयसाक्षी सन्निर्विकारो निरञ्जनः । सदानन्दः स विज्ञेयः स्वात्मत्वेन विपश्चिता ॥२१३॥
इस प्रकार जो आत्मा स्वयंप्रकाश, अन्नमयादि पाँचों कोशोंसे पृथक् तथा जाग्रत्, खप्न और सुषुप्ति तीनों अवस्थाओं का साक्षी होकर भी निर्विकार, निर्मल और नित्यानन्दखरूप है उसे ही विद्वान् पुरुषको अपना वास्तविक आत्मा समझना चाहिये ।
आत्मस्वरूपविषयक प्रश्न
शिष्य उवाच
मिथ्यात्वेन निषिद्धेषु कोशेष्वेतेषु पश्चसु । सर्वाभावं विना किश्चिन्न पश्याम्यत्र हे गुरो । विज्ञेयं किमु वस्त्वस्ति स्वात्मनात्र विपश्चिता ॥ २१४॥
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