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आत्मानात्मविवेक. श्रुतिप्रमाणकमतेः - स्वधर्म
निष्ठा तयैवात्मविशुद्धिरस्य । विशुद्धबुद्धेः परमात्मवेदनं
तेनैव संसारसमूलनाशः ॥१५०॥ जिसका श्रुतिप्रामाण्यमें दृढ़ निश्चय होता है, उसीकी स्वधर्ममें निष्ठा होती है और उसीसे उसकी चित्तशुद्धि हो जाती है। जिसका चित्त शुद्ध होता है उसीको परमात्माका ज्ञान होता है और इस ज्ञानसे ही संसाररूपी वृक्षका समूल नाश होता है।
कोशैरनमयायः पञ्चभिरात्मा न संवृतो भाति । निजशक्तिसमुत्पनैः शैवालपटलैरिवाम्बु वापीस्थम् १५१
अन्नमय आदि पाँच कोशोंसे आवृत हुआ आत्मा, अपनी ही शक्तिसे उत्पन्न हुए शैवाल-पटलसे ढके हुए वापीके जलकी भाँति नहीं भासता।
तच्छैवालापनये सम्यक् सलिलं प्रतीयते शुद्धम् । तृष्णासन्तापहरं सद्यः सौख्यप्रदं परं पुंसः ॥१५२॥ पश्चानामपि कोशानामपवादे विमात्ययं शुद्धः । नित्यानन्दैकरसः प्रत्यग्रूपः परः स्वयंज्योतिः ॥१५३॥
जिस प्रकार उस शैवाल ( सेवार ) के पूर्णतया दूर हो जानेपर मनुष्योंके तृषारूपी तापको दूर करनेवाला तथा उन्हें तत्काल ही परम सुख प्रदान करनेवाला जल स्पष्ट प्रतीत होने लगता है उसी प्रकार पाँचों कोशोंका अपवाद करनेपर यह शुद्ध, नित्यानन्दैकरसस्वरूप, अन्तर्यामी, स्वयंप्रकाश परमात्मा भासने लगता है।
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