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________________ भारत का भविष्य जाएं और वे ही भारत को बनाए चले जाएं, तो भारत का जो पुराना रोग है वह अपनी जगह रहेगा, उसे मिटाया नहीं जा सकता। पुराने आदमी की समझ चाहिए, नये आदमी की शक्ति चाहिए। पुराने आदमी का अनुभव चाहिए, नये आदमी का भविष्य चाहिए। अनुभव अतीत से आता है, भविष्य आशाओं से आता है। बूढ़े आदमी के पास आशाएं नहीं होती हैं, अतीत होता है, अनुभव होता है। नये आदमी के पास आशाएं होती हैं, अनुभव नहीं होता, अतीत नहीं होता। असल में, परानी और नई पीढी सदा उस हालत में होती हैं जिस हालत में कभी एक जंगल में आग लग गई थी और एक अंधे और लंगड़े ने अपने को पाया था। अंधा देख नहीं सकता था, लंगडा भाग नहीं सकता था। आग भयंकर थी और दोनों की मौत निश्चित थी। करीब-करीब भारत ऐसी आग के बीच में खड़ा है। जहां एक पीढ़ी अंधी है और एक पीढ़ी लंगड़ी है। बूढ़ी पीढ़ी लंगड़ी है और नई पीढ़ी अंधी है और आग भयंकर है, और दोनों जल कर मर जाएंगी। लेकिन उन दोनों लंगड़े और अंधे आदमियों ने बड़ी समझ का उपयोग किया। लंगड़ा राजी हो गया कंधे पर बैठने को, अंधा राजी हो गया लंगड़े को कंधे पर बिठाने को। अंधा राजी हो गया लंगड़े की आंखों से काम लेने को, लंगड़ा राजी हो गया अंधे के पैरों से काम लेने को। वे दोनों जंगल से बाहर निकल गए थे। क्योंकि अंधा नीचे था और चल रहा था, लंगड़ा ऊपर था और देख रहा था। दो आदमियों ने एक आदमी का काम कर लिया था। हमेशा जब भी सृजन का कोई क्षण हो किसी देश में तो पुरानी और नई पीढ़ी इसी हालत में पड़ जाती है। नई पीढ़ी के पास आंख तो होती है लेकिन दौड़ने के पैर नहीं होते। पुरानी पीढ़ी बैठने को राजी होगी? ये दौड़ते जवान बूढ़ों का बोझ लेने को तैयार होंगे? ये मरते हुए बूढ़े इन जवानों के दौड़ने की और गति को झेलने के लिए तैयार होंगे? ये सवाल हैं नये भारत के लिए। अभी मुझे नहीं दिखाई पड़ता कि ऐसा हो रहा है। अभी ऐसा हो रहा है कि अंधे दौड़ रहे हैं तेजी से। तो बजाए रास्ते पर पहुंचने के वे आग में पहुंच जाते हैं। वह सब तरफ आग लग रही है। वह आग बहुत तरह की है, बहुत रूपों में। इसलिए इस वक्त आग के केंद्र भारत में ही नहीं, सारी दुनिया में यूनिवर्सिटीज बन गई हैं। क्योंकि वहां पैर स्वस्थ और आंखें नहीं हैं, ऐसे लोगों की बड़ी जमातें इकट्ठी हो गई हैं। इस वक्त सारी दुनिया में उपद्रव और आग का केंद्र विश्वविद्यालय है। आग सबसे जोर से वहां है और वहां आंखहीन शक्तिशाली पैर वाले युवक हैं, जो दौड़ेंगे। इसलिए नहीं कि कहीं पहुंचना है, क्योंकि कहीं पहुंचने का खयाल तो आंख को होता है। इसलिए कि पैरों में ताकत है और दौड़े बिना नहीं रहा जा सकता, दौड़ना ही पड़ेगा। दूसरी तरफ बूढ़े कट कर पड़ गए हैं—वे चाहे मंदिरों में बैठे हों, चाहे आश्रमों में बैठे हों, चाहे अपने घरों में बैठे हों, वे कट कर बैठ गए हैं। उनके पास आंख हैं वे देख सकते हैं आग कहां लगी है। लेकिन पैर उनके पास नहीं हैं। न तो वे दौड़ सकते हैं और न ही वे दौड़ने वाले लोगों की सहायता लेने को तैयार हैं। नये भारत का जन्म हो सकता है इस आग के बाहर। बूढ़े और जवान को भारत में सेतु निर्माण करना पड़े। और इधर मैं निरंतर सोचता हूं कि हमें ऐसे कुछ शिविर, और ऐसी कुछ सेमीनार, और ऐसे कुछ मिलन के स्थान बनाने चाहिए जहां नई और परानी पीढी आमने-सामने बात कर सके। जहां बाप और बेटे अपनी तकलीफें और Page 174 of 197 http://www.oshoworld.com
SR No.100002
Book TitleBharat ka Bhavishya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size2 MB
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