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________________ भारत का भविष्य जिनसे हमारे प्राण जड़ हो गए हैं, कुंठित हो गए हैं, अवरुद्ध हो गए हैं। जीवन की धारा को तोड़ने के लिए वापस जीवन की धारा फिर उद्याम वेग से बह सके इस देश में। तो हम एक जीवन को प्रेम की कोई फिलासफी, जीवन को प्रेम करने वाला कोई दर्शन, कोई लाइफ अफरमेटीव फिलासफी, कोई जीवन को सिद्ध करने वाली, जीवन को स्वीकार करने वाली दृष्टि अंगीकार करनी जरूरी है। अन्यथा हम विकसित नहीं हो सकते हैं। यह सवाल कुछ मित्रों ने पूछा कि क्या सिर्फ टेक्नालॉजी के विकास से सब हो जाएगा ? वे ध्यान रखें कि टेक्नालॉजी के सिर्फ विकास से कुछ न हो जाएगा। टेक्नालॉजी भी तभी विकसित होगी जब भीतर जीवन को विधेय के रूप में हम स्वीकार करेंगे। टेक्नालॉजी या विज्ञान, वे सब जीवन को विस्तार करने वाली बातें हैं। जो लोग जीवन का निषेध करते हैं वे उन बातों को पैदा कैसे कर सकते हैं। यह थोड़ा सोचने जैसा है कि हमारे मुल्क में विचारकों की कमी नहीं रही और यह भी जानने जैसी बात है कि हमने जितने बड़े विचारक दिए हैं, शायद हमने जितने बड़े विचारक पैदा किए हैं, कोई एक अकेला देश उतने बड़े विचार के धनी लोगों की दावा नहीं कर सकता | पतंजलि से लेकर अरविंद तक हमारी एक लंबी परंपरा है। इतने अदभुत लोग हमने पैदा किए हैं, जिनकी बौद्धिक क्षमता की कोई टक्कर नहीं है। नागार्जुन, या बिजनाक, या धर्मकीर्ति, या शंकराचार्य इनका कोई मुकाबला है दुनिया में? लेकिन इतने बड़े विचारक पैदा करने के बाद – बुद्ध, गौतम और कोणार्क जैसे अदभुत मनीषी पैदा करने के बाद भी हम वैज्ञानिक पैदा नहीं कर पाए। एक आइंस्टीन पैदा नहीं कर पाए। एक न्यूटन पैदा नहीं कर पाए। यह आश्चर्य की बात है ! इतने बड़े विचारक जिस देश में पैदा हुए हैं वहां कोई भी विचार का धनी वैज्ञानिक क्यों नहीं हो पाया? उसका कारण है, जीवन का विरोध है हमारा । विज्ञान जीवन का प्रेम से पैदा होता है। विज्ञान जीवन के विरोध से पैदा नहीं होता । जीवन के विरोध हमारे व्यक्तित्व में घर कर गया, खून में मिल गया, इसलिए हमने विचारक पैदा किए मोक्ष की तरफ ले जाने वाले। हमने वे विचारक पैदा नहीं किए जो जीवन की तरफ ले जाते हैं । हमारी सारी विचार की शक्ति – मोक्ष, ब्रह्म, परमात्मा उसकी खोज में लग गई। हमारे जीवन की सारी शक्ति जीवन को समृद्ध करने की दिशा से बिलकुल मुड़ गई। वह धारा कहीं और ही चली गई। इस धारा को वापस लौटाना है। इसका यह अर्थ नहीं है कि हम जीवन की धारा में सम्मिलित, संयुक्त हो जाएं, तो हम परमात्मा और प्रभु को सोचना बंद कर देंगे। मेरी अपनी समझ यह है कि जो जीवन को भी जीने में समर्थ नहीं हैं वे परमात्मा को पाने में कैसे समर्थ हो सकते हैं? जीवन को जीने में जो समर्थ हो जाते हैं उनको ही जीवन की गहराइयों में पहली बार परमात्मा के वास्तविक हस्ताक्षर दिखाई पड़ते हैं । जीवन के अनुभव की गहराइयों में ही प्रभु का मंदिर है। प्रभु जीवन के विरोध में पीठ किए हुए नहीं खड़ा है। अगर प्रभु जीवन के विरोध में होता तो इस जीवन को कभी का नष्ट कर देना चाहिए था । इस जीवन को रचे जाने की, सृजन किए जाने की जरूरत क्या है? लेकिन हमारे महात्मा परमात्मा से भी ज्यादा बुद्धिमान होने का Page 137 of 197 http://www.oshoworld.com
SR No.100002
Book TitleBharat ka Bhavishya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size2 MB
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