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( अनुक्रम
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२१. सत्यशरण सदैव सुखदायी २२. दुःख का मूल : लोभ २३. सुख का मूल : सन्तोष २४. सौम्य और विनीत की बुद्धि स्थिर : १ २५. सौम्य और विनीत की बुद्धि स्थिर : २
कुद्ध कुशील पाता है अकीर्ति २७. संभिन्नचित्त होता श्री से वंचित : ११
संभिन्नचित्त होता श्री से वंचित : २! २६. सत्यनिष्ठ पाता है श्री को : १ ३०. सत्यनिष्ठ पाता है श्री को : २ ३१. कृतघ्न नर को मित्र छोड़ते
यलवान मुनि को तजते पाप : १ ३३. यलवान मुनि को तजते पाप : २
यलवान मुनि को तजते पाप : ३ ३५. हंस छोड़ चले शुष्क सरोवर
बुद्धि तजती कुपित मनुज को ३७. अरुचि वाले को परमार्थ-कथनः किताप ३८. परमार्थ से अनभिज्ञ द्वारा कथनः मिलाप
विक्षिप्तचित्त को कहनाः विलाप ४०. कुशिष्यों को बहुत कहना भी विलास
२३६ २५५ २७७
३००
३२४
३६.
३४७ ३६५ ३८४