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________________ सुख का मूल सन्तोष ४६ सन्तुष्ट और असन्तुष्ट में अन्तर दो व्यक्तियों को एक सरीखे साधन और समान सुविधाएं प्राप्त होने पर भी जो असन्तुष्ट होगा, वह हर समय कोई-न-कोई दुखड़ा रोता रहेगा, परन्तु जो सन्तोषी होगा, वह प्रत्येक परिस्थिति में सन्तुष्ट, प्रसन्न और सुखी रहेगा । दो पड़ौसी थे। दोनों की कौटुम्बिक एक आर्थिक स्थिति एक सी थी, पर दोनों के स्वभाव में रात-दिन का अन्तर था। दोनों के स्वभाव के अनुसार एक का नाम रुदन्तजी आंसूवाल और दूसरे का नाम हसन्ती दिलखुश था । रुदन्त जी के पास जब कोई आता, तब वे अपना कोई-न-कोई दुखड़ा रोया करते। कभी कहते- आज तो बिक्री कम हुई, आज अमुक ने मुझे प्रणाम न या, कभी कहते—आज रोटी ठीक न बनी, आज दाल में नमक ज्यादा पड़ गया। आज तो दस्त साफ न लगी, कभी हाथ में फुंसी की शिकायत होती, तो कभी धोबी अभी तक कपड़े नहीं लाया की फरियाद । इस प्रकार वे हर आगन्तुक के सामने छोटे-गड़े दो चार दुखों का पुराण पढ़ने बैठ जाते । उनका यह पुराण तब तक बन्द न होगा, जब तक आने वाला व्यक्ति किसी जरूरी काम का बहना बनाकर वहां से चला नहीं जाता। वे चाहते थे कि आगन्तुक हमारे दुखों को सुनकर सहानुभूति बताए, हमा प्रति दया और प्रेम करे। परन्तु होता यह कि लोग थककर उनसे किनाराकशी करने लगते। नतीजा यह कि दुःख सुनने वाला न होने से रुदन्तजी का दुःख और बढ़ गया । हसन्तीजी इससे बिल्कुल उलटे स्वभाव के थे। वे कहते थे— “दुनिया में सुख और दुःख दोनों हैं। और सभी के जीवन में हैं है। इसलिए क्यों किसी को अपना दुःख सुनाया जाये और दुःखी किया जाये ? हमसे भी ज्यादा दुखी लाखों पड़े हैं। हम उनके लिए तो रोते नहीं, अपने लिए क्यों रोयें ? एरमात्मा की यह मर्जी क्या कम है कि उसने हमें किसी-न-किसी से अच्छा बनाया ? गालिक ने सौ से बुरा तो एक से अच्छा बना दिया।" वे रोते आदमी को हंसाते ही नहीं थे, बल्कि उसका दुख भुला देते थे। आदमी उनके पास बैठने को लालायित रहते थे। रुदन्तभाई को इससे ईर्ष्या, कुढ़न और जलन होती, वे हसन्तजी को जादूगर समझते या बदमाश कहते। लोगों को मूर्ख, उल्लू, नासमझ आदि कहकर उनकी घृणा बढ़ाते थे। एक तो वे स्वयं असन्तुष्ट होने से दुखी रहते थे, फिर ईर्ष्या के सामान ने उन्हें और अधिक दुखी बना डाला । सामग्री एक सी होने पर भी एक रोता रहता, दूसरा हँसता रहता । सन्तोषी जीवन: हर हाल में खुश संसार का यह नियम है कि जो व्यक्ति हसमुख, प्रसन्नचित्त, आशावादी, उत्साही और सन्तुष्ट होते हैं, उनके पीछे-पीछे लोग फिरते हैं, क्योंकि हर व्यक्ति अपने जीवन में कुछ दुख और चिंता छिपाये बैठा रहता है, वह अपना मन बहलाने के लिए ऐसा
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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