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________________ बुद्धि तजती कुपित मनुज को ३१३ और उसके सींगों में एक तावीज पहनाया, जिसमें मेध-बन्धन यंत्र डाल दिया। उसके बाद यति ने सेठ को हिदायत दी- “देखे। सेठ ! दुष्काल का नाम चारों ओर फैल जाए और तुम्हारा मनोरथ पूर्ण हो जाए, तब शीघ्र ही यह ताबीज निकाल लेना ।" सेठ ने स्वीकार किया और कालियार मृग को एक सुरक्षित बाढ़े में बंधवा दिया। पर सेठ को तो काम से काम था। काम हो गया, यह बात सुनकर सेठानी अत्यन्त प्रसन्न हुई। उस यंत्र के कारण वर्षम न हुई। सेठ ने अपने पास जितना धन था, उससे घास की गंजियों एवं अनाज का संग्रह करवा लिया। यों तो सेठ पक्के कंजूस थे, पर आज सेठानी के मोह में पागल बनकर उदार हो गये थे। श्रावणमास बीत गया, पर वर्षा की एक बूंद भी नहीं गड़ी। अन्त में दुष्काल घोषित हो गया। अनाज के भाव दुगने-तिगुने हो गये, पर जो सेठ के यहां अनाज माँगने जाता, उसे वे फ्री देने लगे। परन्तु कुम्हार उनके यहाँ माँग्मे नहीं गया। परन्तु गाँव छोड़कर अन्यत्र जाने जैसा भी न रहा। कालियार मृग भी सेठ की असावधानी से खुलकर भाग गया। सेठानी को मनाने के बाद सेठ ने और बातों की परवाह न की। फलतः सारे काठियावाड़ में दुष्काल का हाहाकर मच उठा । एक वर्ष में तो कुम्हार का घरबार, बर्तन, भांडे और गधे भी बिक गये। फिर भी सारे वर्ष भर यह अन्न मांगने नहीं आया। सेठानी को तब तक समाधान कैसे होता, जब तक कुम्हार उसके यहाँ अन्न माँगने न आए। उसके हृदय में तो अभी तक क्रोधविष का उफान भरा था। वह यंत्र कालियार मृग के सींगों में अभी बंधा ही पड़ा, था, फलतः दूसरे वर्ष भी दुष्काल पड़ा। सेठ के मन में उसका कोई खेद नहीं था, न महानुभूति ही रही। दुष्काल की करारी मार से बेचारा कुमार अब लाचार हो गया। उसका परिवार भूखों मरने लगा। रूपाली बा तो इसी प्रतीक्षा में थी कब कुम्हार आए और कब मैं अपने अपमान का बदला लेकर रोष उतारूँ । आखिर एक दिन नीचा मुँह किये कुम्हार माँगने आया- "रूपाली बा ! हमें भी कुछ दो। गरीब आदमी हूँ।" पर रूपाली बा को देना कहाँ था; उसे तो जूता मारना था ! वह बोली- "तू तो कहता था न कि तुम्हारी जुआर तो गधे भी नहीं खाते। अब क्यों आया लेने ? भाग जा यहां से बदमाश !" यों कहते-कहते सेठानी ने उसके सिर पर ४-५ जूते लगा दिये। क्रोधमूर्ति सेठानी का हृदय अब ठण्डा हुआ। कुम्हार बोला-- "बा ! दो वर्ष पहले समय और था, आज और है। मैंने आपको शत्रुभाव रा. वे शब्द नहीं कहे थे, सिर्फ व्यवहार की बात कही थी।' पर यह सत्य कौन सुनता ! कोधमूर्ति सेठानी ने उसके जूते मारकर भी अनाज का एक दाना न दिया। बेचारा भूखा कुम्हार दिल में जलता हुआ निराश होकर चला गया। पाषाणहृदया. सेठानी पर कुम्हार के दिन वचनों का कोई असर न हुआ। वह सेठ से कहने लगी- "मेरा मनोरथ तो पूर्ण हो गया है। अब आपको जो करना हो
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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