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संभिन्नवत होता श्री से वंचित : १
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कारण गुप्त (अवचेतन) मन में कटु स्मृतियों या भावी आशंकाओं को सहेजना और सतत उन्हें पोसना है। ऐसे लोगों के चित्त पर एक बोझ हो जाता है, जो हटाने का प्रयत्न किए जाने पर भी नहीं हटता, चित्त का भार हल्का नहीं होता। ऐसे व्यक्ति ऊपर से हंसते हैं, पर अन्दर से निराशा की वतली छाया से घिरे रहते हैं। जब वे एकान्त में होते हैं, तब विक्षुब्ध होकर रोते हैं, आँसू बहाते हैं, संसार उन्हें अन्धकारपूर्ण एवं निराशा से भरा लगता है।
ऐसे व्यक्ति का किसी भी काम में मन नहीं लगता। सब व्यर्थ-सा जान पड़ता है उसे। न उसका जप-तप में चित्त लगता है न धर्म-ध्यान में। कभी-कभी वह अत्यन्त दुःखित होकर आत्महत्या करने पर उतारू हो जाता है। आर्त्तध्यान की इस प्रक्रिया का नाम कुण्ठित चित्त है। ऐसे कुण्ठितचित्त शक्ते के चित्त का भार उसके प्रति आत्मीयता रखने वाले इष्ट मित्रों या सज्जनों द्वारा ही हल्का हो सकता है, ऐसे लोगों से खुलकर बाते करने से वे अपनी असली ब्यथा प्रकट करते हैं। उनके साथ सान्त्वनापूर्वक बात करने से चित्त में छिपी हुई गिथ्याभीति या शंकाएं निर्मूल हो सकती हैं।
बन्धुओ ! ऐसा कुण्ठितचित्त व्यक्ति कैसे श्रीसम्पन्न हो सकता है ? उसके भाग्य में तो दरिद्रता ही लिखी होती है। क्योंकि कुण्स्तिचित्त के कारण वह यथार्थ दिशा में पुरुषार्थ नहीं कर सकता, और जब पुरुषार्थ को करेगा तो भौतिक या आध्यात्मिक किसी भी प्रकार की श्री उसके जीवन में निवास नहीं कर सकेगी। वह दरिद्रता से घिरा
हुआ रहेगा।
इसीलिए योगवशिष्ठ (३।२२१२२) में कहा है---
'अनुवेगः श्रियोगमूलम्' "चित्त का उद्विग्र न होना ही श्री का मूल है।"
संभिन्नचित्त के दो अर्थों पर मैं विस्तार से विवेचन कर चुका हूँ। अन्य अर्थों पर अगले क्रम में विवेचन करने की भावना है।
आशा है, आप सब नहर्षि गौतम के संकेत के अनुसार संभिन्नचित्त से बच कर सम्यक् पुरुषार्थ करेंगे और 'श्री' से सच्चे माने में सम्पन्न होंगे।