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आनन्द प्रवचन : भाग ६
सम्पन्न थे, आध्यात्मिक दरिद्रता उनके पास डिलकुल नहीं फटकती थी। क्योंकि उनके हृदय में कोई निराशा, भविष्य की चिन्ता, म संग्रह की लालसा तथा अन्य भौतिक सुखों की कामना नहीं थी।
आध्यात्मिक दरिद्रता तो वहीं निवास करती हैं, जिसके चित्त में अपनी शक्तियों के प्रति अविश्वास हो, आत्महीनता की भावना हो, जिसका जीवन चारों और शिकायतों से भरा हो। जिसका जीवन शंका, कुण्ठा, बहम और अनिश्चय के दलदल में फंसा हो, जिसकी तृष्णा, विशाल हो, जिसके जीवन मे पद-पद पर असन्तोष हो, अपने संघ, संस्था, परिवार या समाज में हर एक के प्रति घृणा, ईर्ष्या, द्वेष, रोष या विरोध हो। दूसरों को नीचा दिखाकर या दूतो की प्रवृत्तियों की निन्दा करके स्वयं की प्रतिष्ठा या अपने माने हुए समाज या संघ करि प्रतिष्ठा बढ़ाने की मनोवृत्ति हो, जिसमें दूसरों के प्रति उदारता न हो। बाहर से समता का ढिंढोरा पीटा जाता हो, मगर अपने व्यवहार में समता का अभाव हो। सिद्धान्तों की दुहाई दी जाती हो, लेकिन व्यावहारिक धरातल पर उनका बिन्दु भी न हो, केवल सिद्धान्तों के नाम पर क्रियाकाण्डों का जाल हो। पाश्चात्य विचारक डेनियल (Daniel) ने ठीक ही कहा
"He is not poor, that has little, but he that desires much." "दरिद्र वह नहीं है, जिसके पास बहुत कम है, किन्तु वह है, जो बहुत चाहता
फिर वह चाहना पैसे की हो, ऐसा नहीं, प्रतिष्ठा, कीर्ति, शिष्य, अनुयायी, विचरण क्षेत्र आदि की वृद्धि की लालसा भी आध्यात्मिक-दरिद्रता है। व्यावहारिक और आध्यात्मिक दोनों जगता में श्री की आवश्यकता
वास्तव में लोक व्यवहार में जैसे लक्ष्म का महत्त्व है, वैसे लोकोत्तर व्यवहार में भी उसका महत्त्व है। लोकोत्तर व्यवहार में आध्यात्मिक लक्ष्मी का महत्त्व है। अगर आध्यात्मिक जगत में विचरण करने वाले व्यक्ति के पास आत्मबल नहीं है, मानसिक शक्ति नहीं है, इन्द्रियों के वशीकरण की क्षमात्रा नही है, तपस्या का पौरुष नहीं है, कष्ट, सहिष्णुता, क्षमा, दया, सन्तोष, मैत्री, करुणा आदि गुणों का अस्तित्व नही है तो उस श्रीहीनता की स्थिति की स्थिति में वह दोरेद्र है, उसके जीवन में सुखशान्ति और समाधि का अभाव रहता है। वह जहाँ भी जाता है, हीनभावना की ग्रन्थि से पीड़ित रहता है, जिस किसी क्षेत्र में वह कार्य करता है, वहाँ उसे निराशा, चिन्ता, घुटन, कुण्ठा एवं अपमान का वातावरण मिलता है। उसके शिष्य और अनुयायीगण भी उसकी उपेक्षा कर देते हैं।
आध्यात्मिक श्री के अभाव में त्यागे जीवन विडम्बना से परिपूर्ण होता है। आध्यात्मिक श्रीहीन साधक सदैव मानसिक संताप, पश्चात्ताप, दुख-दैन्य एवं व्यथा से