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२७. संभिन्नचित्त होता श्री से वंचित : १
धर्मप्रेमी बन्धुओ!
आज मैं ऐसे जीवन पर विवेचन करना चाहता हूं, जो सदैव सर्वत्र 'श्री' से बंचित रहता है- लक्ष्मी, शोभा, सफलता, किंजयश्री या सिद्धि उसके पास फटकती नहीं, श्री उस अभागे से सदा रूठी रहती है। जीवन में वह सदैव दुर्भाग्यग्रस्त बना रहता है। ऐसे व्यक्ति का जीवन सदा अनिश्च्यात्मक स्थिति में रहता है। जीवन का सच्चा आनन्द, असली मस्ती और आत्मिकसुका वह नहीं प्राप्त कर सकता है। गौतम महर्षि ने ऐसे जीवन को संभिन्नचित-जीवन कहा है, जो सदैव, सर्वत्र श्री से रहित रहता है। गौतमकुलक का यह पच्चीसवां जीवनसूत्र है, जो इस प्रकार है
“संभिन्नचित भया अलच्छी" 'संभिन्नचित मानव अलक्ष्मी दरिद्रता पाना है, श्री से वंचित रहता है।'
_ 'श्री' का महत्व मानव जीवन में 'धी' और 'श्री' यानी बुद्धि और लक्ष्मी दोनों का महत्व प्राचीनकाल से माना जाता है। यद्यपि त्यागी वर्ग के जीवन में लक्ष्मी 'श्री' का महत्त्व इतना नहीं है, किन्तु जहाँ गृहस्थ भौतिक लक्ष्मी की आकांक्षा में रहता है, वहाँ साधु-संन्यासी वर्ग आत्मिक लक्ष्मी आध्यालिक श्री या लक्ष्मी को पाने के लिये प्रयत्नशील रहता है। बुद्धि (धी) के महत्त्व के सम्बन्ध में पिछले दो प्रवचनों में बता आया हूँ। इस प्रवचन में श्री (लक्ष्मी) के मान्त्र की ओर इंगित किया गया है। 'श्री' से वंचित जीवन सदैव कुण्ठाग्रस्त, अभाब पीड़ित, अनादरणीय और उपेक्षणीय रहा है। जहाँ 'श्री' नहीं होती, वहाँ उदासी, मायूसी और दुर्दैव की छाया रहती है। श्रीहीन जीवन कान्तिहीन चन्द्रमा, प्रकाशहीन सूर्य या उजाले से रहित दीपक की तरह निस्तेज
और फीका होता है। श्रीविहीन जीवन में कोई उत्साह, किसी कार्य को करने का साहस, संकल्प अथवा स्फुरण नहीं होता। वह सदैव चिन्तित, उदासीन, एवं अभावग्रस्त होता है। श्रीविहीन व्यक्ति से परिवार वाले भी सीधे मुँह नहीं बोलते,