SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 11
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सत्यशरण सदैव सुखदायी ३ इस बात को तभी मान सकता हूं. जब मैं प्रत्यक्ष देख लूँ ।" महात्मा बोले – “इस रविवार को तुम। एक काम करना। चादर ओढ़कर सो जाना। कोई भूत लगा हो, इस तरह का बहाना करना। फिर मैं आकर सब संभाल लूँगा।" बस, रविवार की सेठ चादर ओढ़कर सो गया, बीमारी के मारे बड़बड़ाने और छटपटाने लगा। डॉक्टर वैद्यों का ताँता लग गया, परन्तु बीमारी काबू में नहीं आई । इतने में वह महालाजी आए। पूछा - "नया हुआ, इसको ?” सबने कहा"महात्माजी इसे बहुत भयंकर बीमारी लग गई है। कृपा करके इसे ठीक कर दीजिए। ' महात्माजी ने जल मँगवाकर, उसमें कुछ दवा डालकर जप किया और उसे एक शीशी में भर लिया। फिर महात्मा ने सबसे पहने सेठ की माँ से कहा - " अगर आपको अपना बेटा जीवित रखना है तो इस शीशी कर पी लीजिए। अब आपको तो भगवान के घर जाना ही है। लड़का जिन्दा रहेगा तो कुछ न कुछ सुख देखेगा । " सेठ की माँ बोली- "अभी तक बहू छोटी है, एक ही वर्ष तो हुआ है विवाह हुए, न, न, मुझसे नहीं पीया जाएगा यह ।" इसके बाद संत ने सेठ की पत्नी, बहन, भाई, पिता आदि सभी से उस शीशी को पीने को कहा, मगर कुछ न कुछ बहाना करके सभी टालमटोल करने लगे। संत ने फिर विशेष जोर देकर कहा - "तुम तो इसके निकट सम्बन्धी लगते हो, अतः इसे पीकर इसका दुःख मिटाओ न ?” सबने कहा - "यह तो नहीं पीया जाता और आप जो कहें सो करने को तैयार हैं। आप संत हैं, परोपकारी और कृपालु हैं, आप पी जाएँ तो हम आपका उपकार भानेंगे। " संत ने कहा- "मैं तुम्हारा ही सम्बन्धी नहीं, विश्वकुटुम्बी हूँ, मुझे तो पीना ही पड़ेगा।" यों कहकर संत उस शीशी को पी गए। सेठ को प्रतीती हो गई कि अपने कुटुम्ब-कबीले को मैं व्यर्थ ही शरण रूप मनाता था, परन्तु कोई भी मुझे दुःख में शरणदाता, त्राता नहीं । इसी प्रकार कई भोले-भाले लोग धन को शरण रूप मानते हैं, परन्तु धन तो चंचल है, नाशवान् है, यह मनुष्य का शरणदाता कैसे हो सकता है ? इसी प्रकार संसार का कोई भी पदार्थ शरणदायक नहीं हैं। जैन धर्म में चार शरण बताये हैं, वो भी सत्य के अन्तर्गत आ जाते हैं। अरिहन्तों की शरण इसलिए स्वीकार करते हैं कि वे परमसत्य की पूर्णता को ज्ञान-दर्शन- चारित्र, वीर्य और सुख के रूप में पाकर कृतकृत्य एवं देहमुक्त हो चुके हैं। तीसरी साधु की शरण इसलिए ग्रहण की जाती है कि वे परम सत्यार्थी और सत्य के परमशोधक हैं, उत्कृष्ट साधक भी हैं। और चौथी शरण ली जाती है धर्म की, वह परम सत्य धर्म की ली जाती हैं, यानी जो धर्म सत्य से ओत-प्रोत है, उसी की शरण ली जाती है। इस प्रकार इन चारों शरणों का सत्य शरण में अन्तर्भाव हो जाता है। इसीलिए महर्षि गौतम ने कहा- 'सरणं तु सच्चा 'शरण तो सत्य ही हैं।'
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy