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ऐसे पुत्र से क्या...?
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अर्थात् उस पुत्र के होने से क्या लाभ जो न विद्वान ही हुआ न धार्मिक ही बन सका ।
किन्तु पुत्रों की विद्वत्ता और धर्मर्हनिता का कारण वे स्वयं नहीं होते, उनके भाता-पिता होते हैं। आज के माँ-बाप बच्चों को सुसंस्कारी बनाने के बजाय शैशवावस्था में ही यह पूछते हैं "थारे केड़ी बींदणी लावाँ ?" और पुत्री हो तो " थारे बींद केड़ो लावणो ?"
क्या ऐसे-ऐसे प्रश्न पूछने वाले माता-पिता अपने बच्चों को कभी योग्य बना सकते हैं? माता होनी चाहिए शकुन्तला जैसी, जिसने अपने पुत्र भरत को चार वर्ष की अवस्था में ही शेर के दाँत गिनना सिखा दिया। माता होनी चाहिए जीजाबाई जैसी, जिसके बनाए गए पुत्र ने औरंगजेब के छक्के छुड़ा दिये। माता होनी चाहिए शंकराचार्य की माता जैसी, जिसने शंकराचार्य वत ज्ञान के शिखर पर पहुँचा दिया।
ऐसी माताएँ अपने पुत्रों का भला कहीं कर सकतीं जो बालक की शैशवावस्था में यह कहकर खुश होती हैं कि 'अपने आप को थप्पड़ मार!' और न वह पिता ही बालक का हितकारी बन सकता है जा बालक से अपनी माता के बाल खींचने को कहता है।
और बचपन से यह बातें सीखकर बड़ा होने पर वही लड़का जब नाना प्रकार के असभ्य व्यवहार करता है तो के ही माँ-बाप कहते हैं- 'हमारा लड़का कपूत है।' अरे, लड़का कपूत कैसे बना? आपने ही तो उसे कपूत बनाया। इसीलिये उर्दू भाषा में कहा गया है :
'हेत और प्यार में, कर देव जन्म अपना पिसर
इल्म मुतलक न सिखाए वो फिर कुछ भी नहीं ।
जिसने प्रभु से न करी प्रीत वो भर कुछ भी नहीं।'
जो पिता अपने बालक को ज्ञानाभ्यास न कराकर केवल लाड़-प्यार में ही बिगाड़ देता है, उसमें उत्तम संस्कार न डालकर केवल उम्र से जवान बना देता है। वह पिता पिता नहीं है। उसी प्रकार जिस प्रकार की ईश्वर से प्यार न करने वाला मनुष्य सच्चे मायने में मनुष्य नहीं है।
शिशु जन्म से कुछ भी सीखकर नहीं आता। वह जो कुछ भी सीखता है, अनुकरण के द्वारा ही सीखता है। माता-पिता तथा परिवार के अन्य व्यक्तियों को जैसा करते देखता है, वह भी वैसा ही करने लगता है। चोर का पुत्र चोर बनता है और पुजारी का पुजारी। इसलिए प्रत्येक पिता का कर्तव्य है कि वह स्वयं सुसंस्कारी, आचारनिष्ठ और ज्ञानवान बने तथा अपनी संतान को भी वैसा ही बनाए। ताकि बड़ा होने पर वह विद्वानों की प्रभा में बैठने पर शोभा पा सके।