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. नही ऐसो जन्म बारम्बर
[४८] लोकालोक त्रिलोकी हूँ मैं, चिदमन्दमय चेतन,
हैं ये सब पर्याय द्रव्यमय, मैं हूँ अध्द सनातन।
ऐसा समझ लेने वाला मुमुक्षु सदा। जागृत रहता है। वह अपना एक क्षण भी व्यर्थ में नहीं खोता। ऐसे ही एक तपस्वी दिन-रात भगवान का भजन करते जाते थे। किसी व्यक्ति ने उनसे पूछ लिय1 - "आप रात्रि में कुछ देर सो क्यों नहीं लेते?"
तपस्वी बोले - "भाई, मेरे नी तो नरक की आग जल रही है तथा ऊपर से दिव्य राज्य आवाहन कर रहा है। फिर मुझे नींद कैसे आ सकती है?"
बंधुओ, जीवन के गणित को आपनि समझ लिया होगा। जिस प्रकार स्कूल में जोड़, बाकी, गुणाकार एवं भागाकार सिखाया जाता है, इसी प्रकार हमारे यहाँ पारमार्थिक दृष्टि से देखा जाय तो जैसा के अभी मैंने बताया, जोड, ब्रह्मचर्याश्रम है, बाकी गृहस्थाश्रम है, गुणाकार वानप्रस्थाश्म और भागाकार संन्यासाश्रम है। जीवन के चार भाग कर दिये गए हैं और उसके अनुसार प्रत्येक का कार्य भी बताया गया है। किन्तु एक बात मैं और बताना चाहता है।
लकीर के फकीर नहीं बनना है। यद्यपि जीवन चार आश्रमों में बना है पर हमें लकीर का फकीर बनकर धर्म-कार्य को, पारमार्थिक कार्य को इनके अनुसार ही जीवन के अन्तिम भाग में ही नहीं करना है। अर्थात् इससे पहले हाथ में लेना ही नहीं है ऐसा आप मत समझ लेना। इसके लिए तो 'जब हम चागें तभी सबेरा'। यह कहावत चरितार्थ हो सकती है। धर्म कार्य के लिए समयी प्रतीक्षा करना बड़ी नासमझी है। हमारे संत-इतिहास में तो गजसुकुमाल और ऐवका मुनि जैसे अनेकों महापुरुषों के विषय में बताया गया है, कि उन्होंने बचपन में संसार से विरक्त होकर संयम अंगीकार किया तथा अपनी आत्मा का कल्याण कर लिया
विद्यार्थियों ! आप ऐसा न भी कर सकें तो भी आपको अभी से अपनी भावनाओं को उत्तम और संस्कारयुक्त बनाना चाहिये। अगर आपका ध्यान इस लघु-वय से ही सद्गुण-संचय की ओर रहेगा तो आपकी शिक्षा में चार चाँद लग जाएँगे। कागज के फूल खुशबू के अभाव में आपकी शिक्षा किसी को मुग्ध नहीं कर सकती तथा स्वयं आपको भी लाभदायक नहीं म सकती। इसलिए आपको सद्गुणों की वृद्धि का निरन्तर ध्यान रखना है। यह नहीं भूलना है कि आप जो शिक्षण लेते हो वह केवल सद्गुणों की वृद्धि के लिए है।
सदगुण-संचय कैसे हो? सद्गुणों का संचय केवल पुस्तकें गढ़ने से नहीं होता। वह होता है सत्संग रो। आप अनुभवी और गुणी पुरुषों के गम्पर्क में रहें तथा संत-रामागम करें तो